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॥वि० स्था० पू०।
(६)
नंजन सिंधुर । सुमतिकंद घन अवतारी ॥ अंग दुबालस नणे नणावें। शिष्य नणी चि तहित धारी ना० ॥ २ ॥ सकल सूत्र उपदे श दियण ते वाचक शति विमलाचारी ॥ नव तीजै अमृत सुख पावें । सुर शसुरेंद्र मनोहारी ना० ॥३॥ हय गय वृष पंचान न सरिखा । करमकंद वरतर वारी । वासु देव वासव नृप दिनकर । विधु झारि तु लाधारी ना०॥ ४ ॥ जंबू सीता नदि कांच न गिरि। चरमजलधि नेपम नारी। एनपम बऊतनी जाणों उतराध्ययनें कही सारी ना० ॥ ५॥ श्मल पंचविंशति गुण मणि निधि सकल नवन जन उपगारी । संशय तिमिर हरण वासर मणि । पाप ताप आ तप वारी ना० ॥६॥ प्रवर संख पय नरि यो सोहै। तिमए ज्ञान चरण चारी महेंद्र पाल पाठक पद सेवी । लहियो जिन पद विजितारी ना० ॥७॥
॥ काव्य ॥ सहोहि बीजं कुर कारणाणं । णमो णमो वायग वारणाणं । कुबोहि दंती हरिणेसरा
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