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207. उत्तरकुरु :- महाविदेह में आया हुआ एक क्षेत्र, जहाँ हमेशा अवसर्पिणीकाल के पहले आरे जैसे भाव होते हैं ।
208. उपकार क्षमा :- क्रोध का प्रसंग उपस्थित होने पर भी 'ये मेरे उपकारी हैं'-ऐसा जानकर क्रोध नहीं करना अर्थात् क्षमा भाव को धारण करना उसे उपकार क्षमा कहते हैं |
___209. उपांगसूत्र :- 1) अंग सूत्रों के आधार पर रचे गए सूत्रों को उपांग सूत्र कहते हैं । 2) शरीर के अंगों के प्रभेद को उपांग कहते हैं- जैसे-हाथ की अंगुलियाँ उपांग हैं।
210. उरः परिसर्प :- अपनी छाती के बल पर रेंगकर चलनेवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच । जैसे - साँप, अजगर आदि
211. उपशमश्रेणी :- कषायों को शांत करते हुए जिस श्रेणी पर चढ़ा जाता है, उसे उपशमश्रेणी कहते हैं । यह उपशमश्रेणी 11 वें गुणस्थानक में समाप्त होती है, वहाँ से आत्मा का अवश्य पतन होता है ।
212. ऊहापोह :- किसी पदार्थ को समझने के लिए जो तर्क - वितर्क किए जाते है, उसे ऊहापोह कहते हैं ।
213. उत्सर्ग :- इसके अनेक अर्थ है-उत्सर्ग का अर्थ त्याग भी होता है-जैसे कायोत्सर्ग (काया + उत्सर्ग) |
-उत्सर्ग मार्ग अर्थात् मुख्य मार्ग अथवा राज मार्ग ।
214. उन्मार्ग देशना :- वीतराग प्रभुने जो उपदेश दिया है, उससे विरुद्ध उपदेश देना, उसे उन्मार्ग देशना कहते है |
215. उपसर्ग :- उपद्रव ! भगवान महावीर पर गौशाला, चंडकोशिक, संगम देव आदि ने उपसर्ग किया था ।
216. उपांशु जाप :- पास में बैठे हुए को सुनाई न दे इस प्रकार होठ फडफडाते हुए मंत्र का जाप करना ।
217. ऋजुगति :- सरलगति ! आत्मा एक भव से दूसरे भव में जाती है, तब उसकी दो गतियाँ होती हैं । ऋजुगति और वक्रगति । ऋजुगति यानी बिना मोड़वाली गति । और मोड़वाली गति वक्रगति कहलाती है ।
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