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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 199. उपवास :- आत्मा के समीप में रहना उसे उपवास कहते हैं । एक प्रकार का बाह्य तप, जिसमें तीन अथवा चार आहार का त्याग किया जाता है। 200. उपशम सम्यक्त्व :- दर्शन मोहनीय कर्म के उपशमन से जो सम्यक्त्व प्राप्त होता है, उसे उपशम सम्यक्त्व कहते हैं । इस सम्यक्त्व का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । अनादि मिथ्यादृष्टि जीवात्मा को सर्वप्रथम बार इसी सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । इस सम्यक्त्व का स्पर्श हो जाने के बाद जीव का संसार परिभ्रमण मर्यादित हो जाता है । एक बार भी इस सम्यक्त्व का स्पर्श हो गया तो वह आत्मा इस संसार में अर्ध पुद्गल परावर्त काल से अधिक नहीं भटकती है। 201. उपशम चारित्र :- उपशम श्रेणी पर आरूढ़ हई आत्मा के चारित्र को उपशम चारित्र कहते हैं | चारित्र मोहनीय कर्म के उपशम से इस चारित्र की प्राप्ति होती है । इस चारित्र के अस्तित्व में किसी भी प्रकार के कषाय का उदय नहीं होता है। 202. उपादान कारण :- जो कारण स्वयं कार्य रूप में परिणत होता हो, उसे उपादान कारण कहते हैं । जैसे - मिट्टी स्वयं घड़ा बनती है अतः मिट्टी यह घड़े का उपादान कारण है । 203. उपशांत मोह गुणस्थानक :- चौदह गुणस्थानकों में ग्यारहवें गणस्थानक का नाम उपशांत मोह गुणस्थानक है । इस गुणस्थानक में मोहनीय कर्म की सभी प्रकृतियाँ शांत हो गई होती हैं । इस गुणस्थानक में आत्मा अन्तर्मुहूर्त तक ही रह सकती है, उसके बाद आत्मा का अवश्य पतन होता है। 204. उपादेय :- ग्रहण करने योग्य ! जैसे 9 तत्त्वों में पूण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष तत्त्व उपादेय हैं । 205. उपासक :- ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना - साधना करनेवाले साधक को उपासक कहते हैं । 206. उपाश्रय :- गुरु के सान्निध्य में रहकर जिस स्थान पर ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना साधना की जाती है, उसे उपाश्रय कहते हैं । -18b= For Private and Personal Use Only
SR No.020397
Book TitleJain Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherDivya Sanesh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size11 MB
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