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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैन न्याय-शास्त्र तथा तर्क-शास्त्र के पिता माने जाते हैं। न्यायशास्त्र एवं प्रमाणवाद को उन्होंने नयी दिशा दी है। जैन न्यायशास्त्र के तो वे जनक ही हैं। लेकिन उन्होंने अनेकान्तवाद की स्थापना करके जैन दर्शन को एक ठोस आधार प्रदान किया । प्रमाण के क्षेत्र में नयी दिशा देकर उन्होंने नयों की भी अत्यन्त गहन-गम्भीर मीमांसा की है। उन्होंने नैगम नय का अन्तर्भाव संग्रह एवं व्यवहार में कर दिया। तर्क-युग में प्रमाण प्रमाण के सम्बन्ध में चार बातों पर विचार किया गया है-प्रमाण का स्वरूप, प्रमाण की संख्या, प्रमाण का विषय और प्रमाण का फल । इस युग में ज्ञान गौण हो गया, और प्रमाण मुख्य । हर बात को प्रमाण की कसौटी पर कसा जाने लगा। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष तथा परलोक को भी बिना प्रमाण के मानने से इन्कार कर दिया गया। प्रमाण में भी अनुमान प्रमाण का अतिशय महत्व बढ़ गया। प्रत्यक्ष की वस्तु को भी अनुमान का विषय बनाया गया । प्रमाण की परिभाषा प्रमाण का लक्षण करने वाले सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन दिवाकर हैं । प्रमाण का लक्षण इस प्रकार हैं- "प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवजितम् ।" बाधरहित, स्व तथा पर को प्रकाशित करने वाला जो ज्ञान, वह प्रमाण होता है। बाधरहित का अर्थ है-संशय, विपर्यय तथा अनध्यवसाय से रहित । माणिक्यनन्दी आचार्य माणिक्यनन्दी ने प्रमाण का लक्षण किया है-'वही ज्ञान प्रमाण है, जो स्व का और अपूर्व अर्थ का निर्णय करता है। ज्ञान अपने को भी जानता है, और बाह्य अर्थ को भी जानता है । अर्थ-ज्ञान में भी विष्टपेषण न हो, कुछ नूतनता हो । अतः अर्थ का अपूर्व विशेषण है। वादिदेव सूरि आचार्य वादिदेव सरि ने प्रमाण का लक्षण किया है-"स्व-पर व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।" स्व और पर का निश्चयात्मक ज्ञान प्रमाण है। अपूर्व विशेषण हटा दिया गया। जो ज्ञान निश्चयस्वरूप है, वह प्रमाण है। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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