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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्तु का लक्षण | ७७ द्रव्य हैं । द्रन्द्रियों के द्वारा उपलब्ध वस्तु का ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। इन्द्रियजन्य ज्ञान के लिए परोक्ष शब्द ही उपयुक्त होता है, क्योंकि पर से होने वाला ज्ञान परोक्ष ही होता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर जैन न्याय-शास्त्र की आधारशिला रखने वाले आचार्य सिद्धसेन हैं । जसे दिङ नाग ने वौद्धसम्मत विज्ञानवाद और एकान्त क्षणिकता को सिद्ध करने के लिए पूर्व परम्परा में थोड़ा-बहत परिवर्तन करके बौद्ध प्रमाण-शास्त्र को व्यवस्थित रूप दिया, उसी प्रकार सिद्धसेन ने भी न्यायावतार में, जैन न्याय-शास्त्र की नींव न्यायावतार की रचना करके रखी। सिद्धसेन ने न्यायावतार में पूर्व परम्परा का अनुकरण न करके अपनी स्वतन्त्र बुद्धि तथा अपनी प्रतिभा से काम लिया। सिद्धसेन ने जैन दष्टिकोण को अपने सामने रखते हुए भी लक्षण रचना में दिङ नाग के ग्रन्थों का पर्याप्त मात्रा में उपयोग किया है, और स्वयं सिद्धसेन के लक्षणों का उपयोग अनुगामी जैनाचार्यों ने अत्यधिक मात्रा में किया है, यह बात स्पष्ट है। आचार्य सिद्धसेन ने भी प्रमाण तो दो ही माने-प्रत्यक्ष और परोक्ष । लेकिन उनमें जैन परम्परा अनुगत पांच ज्ञानों की मुख्यता नहीं, लोकसम्मत प्रमाणों की मुख्यता है। उन्होंने प्रत्यक्ष की व्याख्या में लौकिक तथा लोकोत्तर दोनों प्रत्यक्षों का समावेश कर लिया है। परोक्ष में अनमान और आगम का । इस प्रकार आचार्य ने आगम में मुख्य रूप में कथित चार प्रमाणों का नहीं, अपितु प्रमाण के तीन भेद स्वीकार किए हैंप्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । सांख्य और योग भी उक्त तीन प्रमाण मानते हैं। न्याय-शास्त्र एवं प्रमाण-शास्त्र में, दार्शनिकों ने प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति-इन चार तत्वों को प्रधानता दी है। आचार्य सिद्धसेन ही प्रथम जैन तार्किक हैं, जिन्होंने न्यायावतार में, इन चारों की व्याख्या की है । प्रमाण का लक्षण किया है । उसके भेद-प्रभेद किए हैं। नयों का लक्षण और विषय बताकर, जैन न्याय-शास्त्र की गहरी एवं स्थिर नोंव डाली है। आचार्य ने अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु लक्षण को रचना की, जो आज तक सभी जैन नैयायिकों द्वारा प्रमाणभूत माना जाता है, सबने उन्हों का अनुकरण तथा अनुसरण किया है । सन्मति तर्क में, आचार्य ने अनेकान्तवाद का जोरदार मण्डन किया है, और विरोध का खण्डन किया है। For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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