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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्तु का लक्षण | ७१ १. द्रव्य-गुणों के समूह को द्रव्य कहा जाता है। जैसे जडता आदि घट के गुणों के समूह रूप से घट है। परन्तु चैतन्य आदि जीव के गुणों के समूह रूप से घट नहीं है। २. क्षेत्र-निश्चय से द्रव्य के प्रदेशों को क्षेत्र कहते हैं। जैसे घट के प्रदेश घट का क्षेत्र है । जीव के प्रदेश जीव का क्षेत्र है। घट अपने प्रदेशों में रहता है । जीव के क्षेत्र की अपेक्षा से वह असत् है। यही स्थिति जीव की है। ३. काल-वस्तु के परिणमन को काल कहते हैं। जैसे घट स्वकाल से वसन्त ऋतु का है और शिशिर ऋतु का नहीं है। ४. भाव-वस्तु के गुण अथवा स्वभाव को भाव कहते हैं। जैसे घट स्वभाव की अपेक्षा से जल धारण स्वभाव वाला है। परन्तु पट की भाँति आवरण स्वभाव वाला नहीं है। घटत्व की अपेक्षा सद्रूप है, एवं पटत्व की अपेक्षा असद्रूप है। परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले अनेक धर्मो का समन्वय, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद, नयवाद और सप्तभंगीवाद है। जैन दर्शन के ये चारों मुख्य सिद्धान्त हैं। चारों एक-दूसरे के पूरक हैं। अनेकान्तवाद एक दृष्टि है । उसे अभिव्यक्त करने वाली भाषा स्याद्वाद है । अन्य दर्शनों ने इसका घोर विरोध तो किया है, लेकिन प्रकारान्तर से इसको स्वीकार भी किया है। बौद्ध दर्शन का विभज्यवाद और वेदान्त का समन्वयवाद, वस्तुतः अनेकान्त और स्याद्वाद की ही स्वीकृति है । स्याद्वाद और अनेकान्तवाद पीछे नयों पर विचार किया गया था। नय को परिभाषा, नय की व्याख्या और नयों के भेद-प्रभेदों पर भी विचार किया गया था। जैन दर्शन में, नयों का बड़ा महत्व है। क्योंकि नय और सप्तभंग, अनेकान्त और स्याद्वाद के आधार हैं। नय सप्त हैं और भंग भी सप्त हैं। जो नय परस्पर सापेक्ष हैं, वे सुनय कहे जाते हैं । जो नय परस्पर निरपेक्ष हैं, वे दुर्नय कहे जाते हैं । नयों का सापेक्ष कथन ही जैन दर्शन होता है। जिस प्रकार समस्त सरिताएँ सागर में समा जाती हैं। किन्तु सागर सरिताओं में नहीं समाता, उसी प्रकार समस्त वादियों के सिद्धान्त जैन-दर्शन में समाहित हो जाते हैं, परन्तु किसी भी वादी का सिद्धान्त जैन दर्शन नहीं होता। सप्तभंगी जब एक वस्तु के किसी एक धर्म के विषय में प्रश्न करने पर विरोध For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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