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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैन दर्शन में प्रमाण व्यवस्था | ४७ और भाव । किसी का एक नाम रख देना, नाम निक्षेप है । मूर्ति और चित्र आदि स्थापना निक्षेप है। भूतकाल और अनागत काल में रहने वाली योग्यता का वर्तमान में आरोप करना, द्रव्य निक्षेप है। वर्तमानकालीन योग्यता का निर्देश करना भाव निक्षेप है। इन चारों निक्षेपों में रहने वाला जो विवक्षित अर्थ है, वह स्वरूप अथवा स्वात्मा कहा जाता है । स्वात्मा से भिन्न अर्थ परात्मा अथवा पररूप है । विवक्षित अर्थ की दृष्टि से घट है, तद्भिन्न दृष्टि से घट नहीं है। यदि इतर दृष्टि से भी घट हो, तो नाम आदि व्यवहार अर्थात् निक्षेप का उच्छेद हो जायेगा । अतः निक्षेप को समझना अनिवार्य है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से स्वरूप और पररूप का विवेचन यहाँ आवश्यक है । घट का द्रव्य मिट्टी है। जिस मिट्टी से घट बना है, उसकी अपेक्षा से वह सत् है । अन्य द्रव्य की अपेक्षा से वह सत् नहीं है । क्षेत्र का अर्थ है-स्थान-विशेष । जिस स्थान पर घट है, उस स्थान की अपेक्षा से वह सत् है । अन्य स्थानों की अपेक्षा से वह असत् है। जिस समय घट है, उस समय की अपेक्षा से वह सत् है । उस समय से भिन्न ममय की अपेक्षा से वह असत् है । भाव का अर्थ है-पर्याय अथवा आकार विशेष । जिस आकार या पर्याय का घट है, उसकी अपेक्षा से वह सत् है। तद्भिन्न आकार एवं पर्याय की अपेक्षा से वह असत् है । अतः स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से घट है । परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से घट नहीं है। प्रमाण सप्तभंगी सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना, प्रमाण वचन का पहला रूप है । असत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना, प्रमाण वचन का दूसरा रूप है ।.सत्त्व और असत्त्व उभय धर्ममुखेन क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन करना, प्रमाण वचन का तीसरा रूप है। सत्व और असत्व उभय धर्ममुखेन युगपत् वस्तु का प्रतिपादन करना असम्भव है। इसलिए प्रमाण वचन का यह चतुर्थ रूप अवक्तव्य है । उभयमुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ सत्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है । यह प्रमाण वचन का पाँचवाँ रूप है । उभयमुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ असत्वमुखेन भी वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है । यह प्रमाण वचन का छठा रूप बन जाता For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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