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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नय-निरूपणा । ६६ सामान्य तत्व के आश्रय से विविध वस्तुओं का एकीकरण करते हैं, वे वे विचार संग्रह नय की सीमा एवं परिधि में आ जाते हैं । ३. व्यावहार नय-जो विचार भेद को ग्रहण करने वाला होता है, वह व्यवहार न य कहा जाता है। बिना विभाग के व्यवहार सम्भव नहीं है । जगत् का समस्त व्यवहार विभाग पर ही चलता है। जैसे मनुष्य में विभाग करना, कि यह व्राह्मण है, यह क्षत्रिय है, यह वश्य और यह अन्न्यज है। फिर उन में भी भेद करते जाना । सत् को एक मानकर भी उसमें भेद करना कि यह जीव और यह अजीव है। जीव में भी विभाग करना कि यह संसारी है तथा यह सिद्ध है। नेगम नय का आधार लोकरूढ़ि है, लोकरूढ़ि आरोप पर आश्रित होती है। अतः नैगम नय सामान्य-विशेष दोनों को ग्रहण करता है। संग्रह नय, केवल सामान्य को ग्रहण करता है। व्यवहार नय भेद को, विभाग को ग्रहण करता है। फिर भी ये तोनों कम-अधिक रूप में अभेदग्राही तथा सामान्यग्राही होने से द्रव्याथिक नय के भेद माने जाते हैं। क्योंकि किसी न किसी रूप में, इन तीनों में, द्रव्य, अभेद एवं सामान्य अश रहता है। ४. ऋजुसूत्र नय-जो विचार अतीत और अनागत काल का विचार न करके वर्तमान को ग्रहण करता है, वह ऋजुसूत्र नय कहा जाता है। यह नय मानता है, कि भूत तथा भावि वस्तु वर्तमान में कार्य साधक न होने से शुन्यवत् है । जैसे कि वर्तमान समृद्धि ही मुख का साधन होने से समृद्धि कही जा सकती है । लेकिन भूत काल की समृद्धि का स्मरण अथवा भावी समृद्धि की कल्पना, वर्तमान में सुख देने वालो न होने से समृद्धि नहीं है। जो पुत्र अतीत हो अथवा भावी हो, वर्तमान न हो, वह पुत्र ही नहीं होता-इस नय की दृष्टि में । ५. शब्द नय-जो विचार शब्द प्रधान होकर शब्दगत धर्म की ओर झुककर, तदनुसार ही अर्थभेद की कल्पना करता है, वह शब्द नय कहा जाता है। काल, कारक, लिंग और वचन के भेद से शब्द का अर्थ भी भिन्न हो जाता है । जब मनुष्य की बुद्धि काल तथा लिंग के भेद से अर्थ में भी भेद करने लगती है, तब वह शब्द नय होता है । जैसे कि राजगृह नामक एक नगर था। लेकिन भूतकाल में था। वर्तमान में वह नहीं है । अतः भूतकालीन राजगृह नगर, वर्तमान नगर से भिन्न है। यह काल भेद से अर्थ भेद है । तटः, तटी, तटम् । यहाँ पर लिंग भेद से अर्थ भेद है। क्योंकि तीनों शब्द पुल्लिग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग हैं । इसी प्रकार संस्थान, प्रस्थान For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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