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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ | जैन न्याय-शास्त्र : एक परिशीलन नय का सामान्य लक्षण किसी भी विषय का सापेक्ष निरूपण करने वाला, विचार नय है । संक्षेप में नव के दो भेद हैं-द्रव्याथिक नय और पर्यायाथिक नय। जैन दर्षन में वस्तुमात्र सामान्य-विशेष उभयात्मक है। मनुष्य की चेतना अथवा बुद्धि, कभी वस्तु के सामान्य को ग्रहण करती है, तो कभी विशेष को। जब वह वस्तु के सामान्य को ग्रहण करतो है, तब उसका वह विचार द्रव्याथिक नय कहा जाता है । जब वस्तु के विशेप को ग्रहण करती है, तव उसका विचार पर्यायार्थिक नय होता है। लेकिन यह नहीं समझ लेना चाहिए कि द्रव्य दृष्टि में विशेष अर्थत् पर्याय नहीं रहता, और पर्यायदृष्टि में सामान्य अर्थात् द्रव्य नहीं रहता है । दोनों ही रहते हैं, किन्तु गौण-मुख्य भाव होता है । कभी पर्याय गौण है, तो द्रव्य मुख्य रहता है। कभी द्रव्य गौण है तो पर्याय मुख्य हो जाता है । अतः नयों के मूल में दो भेद हो जाते हैं । एक द्रव्याथिक नय और दूसग पर्यायाथिक नय । नयों के विशेष लक्षण १. नैगम नय-जो विचार लोकरूढ़ि तथा लोक संस्कार के अनुसरण से उत्पन्न होता है, वह नैगम नय कहा जाता है ।। जैसे कि किसी काम के संकल्प से जाते किसी व्यक्ति से पूछा जाए, कि कहाँ जा रहे हो, वह कहता, कि गाड़ी लेने जा रहा हूँ। वह गाड़ी लेने के लिए लकड़ी लेने जा रहा है, लेकिन संकल्प गाड़ी का है । यह एक प्रकार की लोकरूढ़ि है। आज महावीर-जयन्ती है । आज रामनवमी है। यह भी लोकरूढ़ि है। भारत और चीन लड़ रहे हैं । वस्तुतः भारत और चीन के लोग लड़ रहे हैं । यह भी लोकरूढ़ि और लोक संस्कार के अनुसार ही कहा जाता है । आलंकारिक विद्वान् यहाँ पर शब्द की लक्षणा शक्ति मानते हैं। काव्य प्रकाश में, आचार्य मम्मट ने 'गंगायां घोपः ।" यहाँ पर गंगा शब्द के तीन अर्थ स्वीकार किए हैं-प्रवाह, तट और शीतत्व -पावनत्व । शब्द की तीन शक्तियों के आधार पर है --अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना ये तीन वृत्तियाँ। २. संग्रह नय-जो विचार, जीव और अजीव तथा जड़ और चेतन का विभाग न करके सद्रूप से सवको एक मानता है, वह संग्रह नय है । समस्त संसार सद्प है, क्योंकि सत्ताशून्य वस्तु जगत् में है ही नहीं । जैसे समस्त मनुष्य एक हैं । क्योंकि सब में मनुष्यत्व सामान्य अनुस्यूत रहता है। यह नय बस्तुगत सामान्य को ग्रहण करने वाला होता है। जो-जो विचार, For Private and Personal Use Only
SR No.020394
Book TitleJain Nyayashastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaymuni
PublisherJain Divakar Prakashan
Publication Year1990
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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