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( ८ )
वर अचिंत्यां होय ॥ ५ ॥ सुकुलें उपन्यो शुं करे, जो शिर कर्म न होय ॥ नाथ्यो विंध्यो ने हयो, शंख जमंतो जोय ॥ ६ ॥ शंख सरीखो नर नमे, आजड कोटिध्वज ॥ पुरुषां मान न कीजीयें, काल तिस्युं नहिं ज् ॥ ७ ॥ सुखीया म करिश गारवो, निर्धन पाय म ठेल ॥ कोइ कुवायो वायशे, ज्युं तुंबडी ने वेल ॥ ८ ॥ गयवर कां तुं गरवियो, देखी वड वड दंत ॥ एहज दंतह जोगथी, युं खम होइ पडंत ( कहे मु लिंद गुमानथी, केते गये गिडिंद ) ॥ ए ॥ १५६ ॥ ॥ ढाल || चोपाईनी देशी ॥
॥ ए लखमी नवि कहेनी होय, समुद्र तातनें ainयो जोय || नारायणने सबलो प्रेम, तोहे निक ली त्यांथी केम ॥ १ ॥ वीजा पुरुष तो खरचे खाय, तिहां शुं रहे लखमी एक ठाय ॥ श्रानडने मूकी नें जाय, देखी मूरख विस्मय थाय ॥ २ ॥ हेमाचा रय पासें सार, जड उचरे बे व्रत बार ॥ थोडुं मूकवा हिंदे धन्न, सो पंचाशे श्रायुं मन्न ॥ ३ ॥ हेम कहे सुप आनड शाह, आगल मन तुक न रहे ह | यति ग्रह करे अपार, मेले मोक ला दाम हजार ॥ ४ ॥ गुरु कहे ए कहो जूठी नांख,
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