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(४३) खर रूडो ने नहिं लीलरी, ए विधि श्रावक जूठ. करी॥ ॥ सोजो स्वर बेगे में सास, तृषावंत जीरण खास॥ शिर हियडु लोचन मुखपाक, दुःखें कान नहिं दातण नांख ॥ ए ॥ शूके मुखने तरडे होग, दांत कुःखता पुःख जस मोट ॥ खरनो नंग थतो होय जिस्ये, तेल कोगला नांख्यां तिस्ये ॥१॥ जीव रहितने निरवद्य गम, दातण फासु कीजें ताम॥
आदि कोगलो करतां जोय, गले बिंदु जल भोजन होय ॥ ११॥ जाण्या वृदनुं दातण करे, अति सुं हालुं हाथे धरे ॥ नलीनूमि तणुं श्रादरी, प्रगमावे रस चावी करी ॥ १५ ॥ उतुं रहे तो सुखनुं हेतु, प में पडे तो आहार संकेत ॥ एम दातणनो सुणी विचार, मल काढे नर तेणी वार ॥ १३ ॥ रोग ताव नेत्रीजी जरा, तेहने दातण नहिं शुनकरा ॥ जे पच्चरकाणी निर्मल बुद्धि, तेहने दातण पाखें शुद्धि ॥१४॥ विष्णुनक्तिचंयोदय सार, तिहां दातणनो कह्यो विचार ॥ पडवे षष्ठी दशमी जोय, नवमी सं क्रांति नवि होय ॥ १५ ॥ तिम वली श्राफ अने उपवास, त्यारें वायुं दातण तास ॥ शास्त्रवचन न विमाने गणे, घसे दांत साते कुल हणे ॥१६॥पूरव
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