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(४४) उत्तर पश्चिम नणी, शास्तरमांहे त्रण दिशि सुणी ॥ बेसी पुरुषने दातण करे, जीव जंतु पहेलु मन धरे ॥ १७ ॥ एम नांख्यो दातणनो नेद, सुणो पुरुष क री उंघ निषेध ॥ षन कवि कहे हित शिवाय, उंघे तेहनो अक्षर जाय ॥ १७ ॥ आंखें अंजन सु रमा तणुं, करतां निर्मल लोचन घणुं ॥ थाको जो जन उजागरो करी, ज्वरनो धणी मूके परहरी ॥ ॥१५॥ मस्तक दाढी उसे नित्य, प्रर्व दिशे त्यां धारे चित्त ॥ बे हाथे माथु नवि खणे, खरड्यो हाथ न दे शिर तणे ॥ २० ॥ आरीसो नित्य जोजो जाण, मांगलिक महोटुं एधाण ॥ पूरव सामो रहिने जोय, मेल नस्यो म म निरखो सोय ॥१॥ निशा सम य नर जोवे कोय, आयु हीण होये नर सोय ॥ दातण करतां पण म म जोय, वदन पखाली निर खो सोय ॥॥ श्रारीसो जोतां जो कहिं, धड उ पर शिर दीसे नहिं ॥ पखवाडे तस मरणज होय, उत्तम नर चेते सहु कोय ॥२३॥ अंबु तेलथने तर वार, तिहां मुख म जुङ नर ने नारि ॥ रुधिर मातरा मांहि नवि जोय, क्रोधीने आय घटतुं होय ॥४॥ आरीसो शरशव दाहिं घीय, बीलां फरसे पु
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