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( १७ )
जोबन हुवे
अवल
ह || बलि हरिचंद रावणो ॥ ५ ॥ ढुंते मूरख चेत धन, म धरिश बानुं रेक ॥ सोवन को सतोरणी, रावण मूकी लंक ॥ ६ ॥ यौवन कवण न बेतयुं, भूखें कवण न खद्ध ॥ लोजी कवण न वाहियो, कानें कवण न दद्ध ॥७ ॥१३६॥
॥ ढाल ॥ एणी पेरें राज्य करंत रे ॥ ए देशी ॥ ॥ कालें सहको दद्ध रे, तिणें नर चेतजे ॥ अंत समय वली प्रति घणुं ए ॥ १ ॥ कही शिखामण सार रे, मनमां धारजे ॥ निज देरासर जूहारजे ए ॥ २ ॥ पढें पुरुष सुण वात रे, जिनमंदिर ज यें ॥ निसहि त्रण तिहां कहियें ए ॥ ३ ॥ मनह व चन जे श्राप रे, कायायें करी ॥ संसार काम निषेध जे ए ॥ ४ ॥ मुऊ देहरानुं काम रे, करवुं ते सही ॥ अवर काज कल्पे नहिं ए ॥ ५ ॥ निसहि मध्य त्रण वाम रे, मन वचनें करी ॥ देवल काम निषेधतो ए ॥६॥ करूं जिनप्रतिमा काज रे, पूजुं पूजावुं ॥ त्रि विध ध्यान निश्चल धरूं ए ॥ ७ ॥ पूजी निसही त्र एय रे, कहेतो स्तुति करे, पूजाद्रव्य निषेधतो ए ॥ ८ ॥ एम जिन जुहारो आप रे, आयें मूकतो, फल नाएं मूके सही ए ॥ ए ॥ श्रशातना उत्कृ
हि० २
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