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(१५६) रती ॥ पूजे गौतम वीरने वली,तव वलतुं जांखे केव ली॥१०॥ ए उशिंगण तातने थयो, आर्यरक्षित वांदेवो कह्यो ॥ षनदास कहे हितशिवाय, उत्तम मानो मात पिताय ॥ ११ ॥ सर्वगाथा ॥ १३१७ ॥
॥दोहा॥ ॥ मात पिताने मानियें, जिम जग कुरमा पूत॥ गृहस्थपणे जस ऊपन्युं, केवलज्ञान अद्लूत ॥१॥ गृहस्थ तणे वेशें रह्यो, सेतो निरवद्य आहार ॥मात पिता प्रतिबोधियां, दीधो संयमनार ॥२॥ राज गृहीनो राजीयो, महेंअसिंह नरीद॥पटराणी कुरुमा तिस्य, करतां बेहु आनंद ॥३॥ कुरुमा पुत्र सुत तेहनो, धुरथी नहिं जन्मत्त यौवन वय पाम्यो जदा, तब ते विषय विरत्त ॥ ४ ॥ एक दिन साधु जणतां सुणी, देतो प्रेमें कान ॥ जातिसमरण पामियो, की, हैडे ज्ञान ॥५॥ देवतणो नव देखतो, मानव हुई हुँ आंहीं। गर्जतणां दुःख दोहिलां, चेत्यो चित्तशुं त्यांहि ॥ ६ ॥ असार स्वरूप संसारगें, देखे तिहां कुमार ॥ शुक्ल ध्यान ध्यातो तिहां, विरुन काम विकार ॥ ७॥ ध्यानरूप अग्नि करी, कर्म इंधण बा लंताकेवल झाने फलहव्यो, जाणे नाव अनंत ॥ ॥
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