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( १५७ )
मन चिंते चारित्र ग्रहुं, तो दुःख मात पिताय ॥ न खमे विरह ए माहरो, हंसा ऊडी जाय || केवल ज्ञानथके रह्या, आणी अनुकंपाय ॥ मात पिता माहारां वली, रखे दोहिलां थाय ॥ १०॥ अनुक्रमें इंझें वली, दीयो यतिनो वेश || मात पिता विस्तारियां, नाहं सुत गुणनो बेक ॥ ११ ॥ कुरमापुत्र कथा सुणी, माय ताय नमी पाय ॥ एक कहे समजे सहु, किसी दिये शिक्षाय ॥ १२ ॥ सर्वगाथा ॥ १३२ ॥ ॥ ढाल ॥ चोपाईनी देशी ॥
॥ शीख देनं कवि कहे ते वती, कबी एक चूक वडाने अति ॥ सीतानो पति चूको राम, मृग देखीने धायो जाम ॥ १ ॥ जग निपायो पोतें सहु, सोवन मृग नी पायो नहु || पण चूक्यो जे पूछें धस्यो, अवसर चूके महोटा इस्यो ॥२॥ रामें वनमें मढी करी ली ह नावे घो वनचर सिंह ॥ सीता लीह लोपी कां इ, एणें थानकें ए चूकी सही ॥ ३ ॥ सिंहनाद मूके रावणो, सुणतां व्यग्र हुई लखमणो ॥ जाएयुं साद करे बे राम, हास्यो जाणी धायो ताम ॥ ४ ॥ मूकी मढी ने श्राघो गयो, एह वरांसो महोटो थयो । एह विचार करो नहिं ताम, केम हारे सीतापति
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