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(१५३) श्रावक परें करी, लखी गुरु बोलावे फरी ॥७॥ कुमर कहे चउद पूरव जेह,मया करीने नणावो तेह॥ तोसलीपुत्र कहे सुणो कुमार, संयमविण नहिं पूरव सार ॥ ७॥ लीधी दीक्षा बंमयुं सहु, श्रुतसिद्धांत जणाव्यो बहु ॥ गुरु कहे पूरवनो खप करो, वयर खामी चरणे अनुसरो ॥ ए॥ गुरुवचने त्यांहांथी चालियो, उडोणीमांदे श्रावियो ॥ जगुप्त श्राचा रय जिस्ये, आर्यरहित निजामे तिस्ये ॥१०॥ शीख दीये आचारिय सही, वयरस्वामीथी अलगो रही॥ जणजे पूरव तुं गहगही, सुणी वचन चाख्यो ते वही ॥११॥ वयरखामी अवंतीमांहि, वादी नणवा लाग्यो त्यहि । पूर्व साडा नव नणियो जिस्ये, आर्यरक्षित मुनि थाको तिस्ये ॥१२ ॥ फदगुरक्षित जाई जेह, श्राव्यो शोधवा वेगें तेह ॥प्रतिबोधी तस दीदा देह, बिहुँ दसपुर नगरें आवेह ॥१३॥ नूपति बहु सामश्युं करे,नगरमांहि मुनिवर संचरे॥ कुटुंब सकल वांदे गहगही, प्रतिबोधी दीये संयम सही ॥ १४ ॥ पिता न बजे तेणें गम, धोती विण न नमुं परगाम ॥ जनोश बत्र अनेज उपान, हाथ कमंगल ते शुजवान ॥ १५ ॥ अतिशयवंत गुरु
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