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॥ दोहा॥ ॥ बहु धन तेहने संपजे, ज्ञषन कहे निर्धार ॥जे जागे ते सांजले, कथा एक सुविचार ॥१॥४५॥
॥ ढाल ॥ चोपाईनी देशी॥ ॥वसंत पुरमांहे शेठ होलाक, वणिग तणुं जेणे खोयुं नाक ॥ महोटा पुत्र घरमांहि चार, को न करे त्यां तत्त्व विचार ॥१॥ तोली धान दिये त्रण शेर, जांखे पंच ए महोटो फेर ॥ लिये पंचने नांखे त्रण, खूटे लोकने श्राव्या शरण ॥२॥ त्रिपुष्कर दिये सुतनुं नाम, ज्यारे होय देवानुं काम ॥ त्रिपुष्कर कही तेडे तदा, पंच पुष्कर लेअंतां सदा ॥३॥ एम करतां नाहानी वढू जेह, जाणी उबको देती तेह ॥ ससरो कहे किम कीजें वरा, निर्धनशुं होये शुजकरा ॥४॥ वहू कहे व्यवहार शुद्धिथी जोय, धर्म अर्थ सधावे दोय ॥षट् महिना तो तुमें मन धरो, रूडं थई बागल आदरो ॥५॥ व्यवहार वह वच. ने आदरे, शुभ काटलां पाउल धरे ॥ साचं बोले साद नवि करे, घणां घराक हाटें तरवरे ॥६॥ लो कमांहे कीरति विस्तरी, ए वाणिकनी दानत फरी॥ अन्न गोल घृत दीये अपार, वस्त नलीने तोले सफा
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