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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (যए) ॥ १ ॥ तंडुलमत्स्य नरके वसे, मनें करे ते पाप ॥ जाणे मत्स्य सघला जखुं, खाइ न शके कां आप ॥२॥ काम जोग बहु जोगवे, त्रण पस्योपम श्राय ॥ जो मन निर्मल युगलनां, सहु सुरलोकें जाय ॥३॥ तेणें कारण नर वणजमां, राखो चोखुं मन्न ॥ ति तृष्णाने करूं, मातुं म वांबिश जन्न ॥ ४ ॥ ८३८ ॥ ॥ ढाल ॥ बंधव ज‍ लावो पाणी ॥ ए देशी ॥ ॥ थयुं वस्तुनुं याकरुं ज्यारें, घणुं त्रगणे वेचे त्यारें ॥ ति जाजुं त्यांहि न जाणे, गयां करियाणां न वखा ॥ १ ॥ पासंग काटलां हीणां जेह, खाधी मांमीयें टाले तेह || रस जेलने वस्तुनो जेल, तजे तेहने सांइशुं मेल ॥२॥ कूडो करहो ने खाता लंच, अति बहु सेवंता मंच ॥ नाएं खोटुं ने साटुं जांजे, लेइ शाईने मोढुं मांजे ॥ ३ ॥ ग्राहक परना नवि जांजीजें, वाणी फेर ते किमहिं न कीजें ॥ अंधारे वस्तु नदीजें, अकरना भेद न कीजें ॥ ४ ॥ परवंच ना जे बहु पेरें, उत्तम करता एक मेरे || करी माया ने वंचे जेह, जगमांहि वंचाये तेह ||५|| देवलोकने मोदनां सुख, किम पामे पर करी दुःख ॥ परवंचना म करो कोय, सत्य चालतां बहु धन होय ॥ ६॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020379
Book TitleHitshikshano Ras
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdas Shravak
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1895
Total Pages223
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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