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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्री दूसरा कल्पसूत्र व्याख्यान. अनुवाद। ॥३२॥ देखती है। २। पूर्वोक्त बैल को देखे बाद आकाश से उतरते और अपने मुखमें प्रवेश करते हुए त्रिशला माता एक सिंह को देखती है । वह सिंह-हारसमूह, क्षीरसागर, चंद्रकिरणों, रजत पर्वत और जलबिन्दुओं के समान उज्ज्वल था। मनोहर होने से दर्शनीय, दृढ़ एवं प्रधान पंजोंयुक्त, पुष्ट, तीक्ष्ण दाढाओं से अलंकृत मुखवाला, सुसंस्कारित जातिमान कमल के तुल्य कोमल और प्रमाणोपेत प्रधान होठों से युक्त, लाल कमल पत्र के समान कोमल एवं प्रधान जिह्वा तथा तालु से सुशोभित मुखवाला वह सिंह था । सुनार की कुठालीमें तपे हुए आवर्तवान उत्तम सुवर्ण के समान गोल और निर्मल बिजली के तुल्य नेत्रवान् , विशाल, परिपुष्ट और प्रधान जंघायें धारण करनेवाले, परिपूर्ण एवं निर्मल कंघे युक्त, कोमल, सूक्ष्म, उज्वल, श्रेष्ठ लक्षणवाली और दीर्घ केशराओं के धारण करनेवाले, उन्नत, कृण्डलाकार एवं शोभायमान पुच्छवाले, तीक्ष्ण नाखून युक्त और सौम्याकृतिवान्, सुन्दर तथा विलासवाली गति से उतरते हुए सिंह को माता देखती है । ३ । ___अब चौथे स्वम में पूर्ण चंद्रमा के समान मुखवाली त्रिशलादेवी ने कमल युक्त इद के कमल में निवास करनेवाली लक्ष्मीदेवी को देखा । लक्ष्मीदेवी के निवासस्थान का वर्णन निम्न प्रकार है-एकसो योजन ऊँचा, बारह कला अधिक एक हजार और बावन योजन लम्बा सुवर्णमय एक हिमालय पर्वत स्थित है। उस पर दश योजन की गहराईवाला, पाँचसो योजन विशाल और एक हजार योजन लंबा वज्रमय तलभागवाला पछाइद नामक एक V॥३२॥ For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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