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कर रुधिर का वमन कराकर सिंहासन से नीचे गिरा दिया। यह देख नागकेतुने विचारा कि मैं जीते हुए संघ का और इन गगनस्पर्शी जिनमंदिरों का विनाश कैसे देख सकता हूं ? यों विचार कर के उसने एक ऊंचे मंदिर के शिखर पर चढ़ कर उस शिला को धारण करने के लिए हाथ ऊँचा कर लिया। इससे उसके तपतेज की शक्ति को सहन न करने के कारण शिला को संहरित कर वह व्यन्तर उसके चरणों में नमा, और उसके वचन से उसने राजा को भी निरुपद्रव किया । एक दिन नागकेतु जिनेन्द्र पूजा कर रहा था उस वक्त पुष्प में रहे हुए एक तंदुलिक सर्पने उसको डंक मारा, तथापि वह व्याकुल न होकर भावना में आरूढ हो गया । शुद्ध भावना में तल्लीन होने से उसने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। फिर शासन देवताने उसे मुनिवेश अपर्ण किया । इस प्रकार नागकेतु की कथा सुन कर दूसरों को भी अहम तप करने में उद्यम करना चाहिये ।
इस कल्पसूत्र में मुख्यतया तीन बातें वांचने की हैं, उसके विषय में पुरिमचरिमाण कप्पो०' यह गाथा है। इसकी व्याख्या यह है कि श्रीऋषभदेव और श्रीवीरप्रभु के साधुओं का यह कल्प- आचार है कि वृष्टि हो या न हो तथापि पर्युषण पर्व अवश्य करना । साथ ही यह भी समझ लेना कि पर्युषणा पर्व में कल्पसूत्र भी वांचना । एक तो यह आचार है और दूसरा यह वीरप्रभु के शासन में मंगलरूप है। यदि कोई शंका करे कि श्री वीरप्रभु के शासन में क्यों कहा ? इसके लिए कहते हैं कि इसमें श्री जिनेश्वरों के चरित्र कथन किये हैं एवं
(१) " पुरिमचरिमाण कप्पो, मंगलं वद्धमाणतिरथंमि । इह परिकहिआ जिणगण-हराइथेरावली चरितं "
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