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श्री
कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद |
॥ १२ ॥
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गणधरादि स्थविरावली के चरित्र भी कथन किये हैं । तथा सामाचारी भी कही है। उसमें भी प्रथम अधिकार में सर्व जिनचरित्रों में निकट उपकारी होनेके कारण पहले श्रीवीरप्रभु का चरित्र वर्णन करते हुए श्री भद्रबाहुस्वामी जघन्य तथा मध्यम वांचनारूप प्रथम सूत्र रचते हैं।
श्री महावीर प्रभु के पांच कल्याणक
उस समय और उस काल में श्रमण भगवान श्री महावीर प्रभु, श्रमण अर्थात् तपस्या करने में तत्पर और भगवान अर्थात् सूर्य और योनि अर्थ सिवाय शेष बारह अर्थवाले । भग शब्द के निम्न लिखे चौदह अर्थ होते हैं64 सूर्य, ज्ञान, महात्म्य, यश, वैराग्य, मुक्ति, रूप, वीर्य, प्रयत्न, इच्छा, लक्ष्मी, धर्म, ऐश्वर्य और योनि ।" इनमें
प्रथम सूर्य और अन्तिम योनि अर्थ वर्ज कर बाकी के तमाम अर्थवाले । महावीर, अर्थात् कर्मरूप वैरी को पराजित करने में समर्थ - ऐसे श्री श्रमण भगवान् महावीर प्रभु के पांच स्थानों में हस्तोत्तरा नक्षत्र अर्थात् उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र आया है । सो इस प्रकार है- मध्यम वाचना से दर्शाते हैं कि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में प्रभु प्राणत नामक दशवे देवलोक से व्यव कर माता के गर्भ में आये, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में ही देवानन्दा के गर्भ से त्रिशला रानी के गर्भ में आये, उत्तराफाल्गुनी में ही जन्मे, उत्तराफाल्गुनी में ही दीक्षित हुए और उत्तराफाल्गुनी में ही प्रभुने अनन्त वस्तु विषयक अनुपम केवलज्ञानदर्शन प्राप्त किया है। और स्वाति नक्षत्र में प्रभु निर्वाण हुए । अब विस्तारवाली वाचना से श्री वीरप्रभु का चरित्र कहते हैं ।
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प्रथम
व्याख्यान.
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