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अपनी चतुराई बतलाते हुए उसने एक बाण के मूल भाग में दूसरा बाण मार कर, उसके मूल भाग में फिर तीसरा बाण मार कर, इसतरह कितनेक बाणों से वहां ही बैठे हुए आमों का गुच्छा तोड़कर कोशा को अर्पण किया और अपनी इस विद्या पर गर्वित होने लगा । परंतु कोशा को इस पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। उसने सरसों का एक ढेर करवाया और उस पर सुईयां खडी कर उन पर पुष्प रख कर उस पर नाच करते हुए गाना शुरु किया । गाती हुई वह कहने लगी
"न दुकरं अंबयलंबितोड़णं, न दुक्करं सरिसवणच्चि याए । तं दुक्करं जंच महाणुभावं, जं सो मुणी पमयवर्णमि वुच्छो॥१॥ अर्थात्-आम की लुंब को तोडना यह कोई दुष्कर नहीं है, एवं सरसव पर नाचना भी कुछ दुष्कर नहीं है, परन्तु वही दुष्कर है जो उस महानुभाव मुनिने प्रमदा(स्त्री) रूप वन में मूर्छित न हो कर कर बतलाया है।" यहां पर कवि कहता है-पर्वतों पर, गुफाओं में और निर्जन वनमें वस कर हजारों मुनिओंने इंद्रियों को वश किया है परन्तु अति मनोहर महल में मनोनुकूल सुन्दर स्त्री के पास रहकर इंद्रियों को वश करनेवाला शकडालनन्दन ही है। जिसने अग्नि में प्रवेश करने पर भी अपने आप को जलने न दिया, तल्वार की धार पर चल कर भी इजा न पाई, भयंकर सर्प के बिल पर रहकर भी जो डसा न गया तथा कालिमा की कोठड़ी में रहकर भी जिसने दाग लगने न दिया। वेश्या रागवती थी, सदैव उनकी आज्ञा में चलनेवाली थी, षट् रसयुक्त भोजन मिलता था, सुन्दर चित्रशाला थी, मनोहर शरीर था, नवीन
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