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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद | ॥ १३२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir वय का मनोज्ञ समागम था, दोनों की युवावस्था थी और समय भी वर्षाकाल का था तथापि जिसने आदरपूर्वक काम विकार को जीता ऐसे, कोशा को प्रतिबोध करनेवाले श्री स्थूलिभद्रमुनि को मैं वन्दन करता हूँ। हे कामदेव ! मनोहर नेत्रवाली स्त्री तो तेरा मुख्य अस्त्र हैं, वसन्त ऋतु, कोयलनाद, पंचम स्वर तथा चंद्र ये तेरे मुख्य योद्धा हैं और विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव आदि तो तेरे सेवक हैं तथापि हे हताश ! तू इस मुनिसे कैसे मारा गया ? हे मदन ! तूने नंदिषेण, रथनेमि और मुनीश्वर आर्द्रकुमार के समान ही इस मुनि को भी देखा होगा ? तू यह नहीं समझा कि नेमिनाथ, जम्बूस्वामी और सुदर्शन सेठ के बाद मुझे रणसंग्राम में पछाडनेवाला चौथा यह मुनि होगा ? विचार करने पर श्री नेमिनाथ प्रभु से भी शकटालसुत श्री स्थूलभद्र अधिक मालूम होते हैं क्यों कि श्री नेमिनाथ प्रभुने तो पर्वत पर जाकर मोह को वश किया था परन्तु इस अनोखे सुभट ने तो मोह के घर में रहकर मोह का मर्दन किया हैं । एक समय बारहवर्षीय दुष्काल के अन्त में संघ के आग्रह से श्री भद्रबाहुस्वामी पाँचसौ मुनियों को दृष्टिवाद की सदैव सात वाचना देते थे । सात वाचनाओं से भी अतृप्त रहते हुए अन्य सब मुनि उद्विग्न होकर अन्यत्र विहार कर गये। श्री स्थूलभद्रजी ही अकेले रह गये। वे दो वस्तु कम दश पूर्वतक पढ़े । एक दिन वन्दन के लिये आई हुई यक्षा आदि साध्वियों को जो उनकी सगी बहनें थीं सिंह का रूप दिखलाने की बात से नाराज हुए श्री भद्रबाहुस्वामीने स्थूलभद्र से कहा - " वाचना के लिये तुम अयोग्य हो, अतः वाचना For Private And Personal आठव व्याख्यान. ॥ १३२ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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