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श्री
कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद |
॥ १३१ ॥
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कोशा नामा वेश्या के घर रहे थे । वररुचि ब्राह्मण के प्रयोग से उनके पिता की मृत्यु हुए बाद नन्द राजाने बुला कर मंत्रीपद देने के लिए कहा तब अपने चित्त में उसी मंत्रीपद से पिता की मृत्यु विचार कर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली । गुरुमहाराज की आज्ञा लेकर प्रथम चातुर्मास कोशा के घर पर रहे। अत्यंत हावभाव करनेवाली वेश्या को भी प्रतिबोध कर गुरु म० के पास चातुर्मास के बाद जब आये तब गुरुजीने भी उठकर संघ के समक्ष "दुष्करकारक दुष्करकारक" कह कर उन्हें सन्मानित किया। इस वचन को सुनकर सिंहगुफा के पास, सर्प की बँबी के पास और कुवे की मण पर चातुर्मास करनेवाले तीनों मुनियों को बड़ा दुःख हुआ। उनमें से दूसरे चातुर्मास में सिंहगुफावासी साधु स्थूलभद्रजी की ईर्षा से गुरुमहाराज के निषेध करने पर भी कोशा के घर चोमासा जारहे । दिव्य रूप धारण करनेवाली कोशा को देख वह मुनि तुरंत ही चलचित्त हो गया । उस वेश्याने नैपाल देश से मुनिद्वारा रत्नकंबल मंगवा कर उसे गटर में फेंक कर उस मुनि को प्रतिबोध किया । फिर वह गुरुमहाराज के पास आकर कहने लगा कि - " सचमुच तमाम साधुओं में स्थूलभद्र तो स्थूलभद्र एक ही है, उसको गुरुजीने दुष्कर दुष्करकारक कहा है सो युक्त ही है, " पुष्प, फल, शराब, मांस और महिलाओं के रस को जानते हुए भी जो उनसे विरक्त रहते हैं ऐसे दुष्करकारक मुनियों को मैं नमस्कार करता हूँ ।
एक समय का जिक्र है कि राजा अपने रथवान पर तुष्टमान हुआ और उससे कुछ मांगने को कहा । उसने कोशा वेश्या की मांगणी की, राजाने उसे स्वीकार किया । रथवान वेश्या के घर गया और वेश्या को
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आठवां व्याख्यान.
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