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सातवा व्याख्यान.
श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद।।
॥१२१॥
हुए थे और जिन्हें प्रभुने अपने पुत्र समझ कर रक्खा हुआ था, वे जब देशान्तर से आये तब भरत उन्हें | राज्य का हिस्सा देने लगा। परन्तु वे उसकी अवगणना कर पिता के वचनानुसार प्रभु के पास आये और । प्रतिमा धारण कर रहे हुए प्रभु के आगे कमलपत्रों में पानी लाकर चारों तरफ भूमि को सिंचित कर तथा पुष्पों का ढेर लगा कर पंचांग नमस्कारपूर्वक "प्रभो! हमें राज्य दो" इस प्रकार सदैव प्रार्थना करने लगे। एक दिन प्रभु को वन्दन करने आये हुए धरणेंद्रने उनका ऐसा आचरण और प्रभु के प्रति अतिभक्ति देख है संतुष्ट होकर कहा “अरे ! प्रभु तो निःसंग हैं, उनके पास मत मांगो, प्रभु की भक्ति से तुम्हें मैं ही दूंगा" यो:कह कर उन्हें अड़तालीस हजार विद्यायें दीं। उनमें गौरी, गांधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्तिरूप चार महाविद्याच पाठसिद्ध दीं। विद्यायें देकर कहा-इन विद्याओं द्वारा विद्याधर की ऋद्धि को प्राप्त कर तुम अपने सगे संबन्धियामी को लेकर वैताढ्य पर्वत पर चले जाओ, वहां दक्षिण श्रेणि में गौरेय गांधार, प्रमुख आठ निकायों को तथायर रथनुपुरचक्रवाल आदि पचास नगरों को और उत्तर श्रेणि में पंडक, वंशात आदि आठ निकायों को तथा गगनवल्लभादि नगरों को बसा कर रहो। फिर कृतार्थ होकर वे दोनों भाई अपने पिताओं और भरत को अपना सर्व वृत्तान्त सुना कर दक्षिण श्रेणि में नमि और उत्तर में विनमि जा रहे ।
श्रेयांसकुमार का दान. अब अन्न-जल देने में अकुशल समृद्धिवाले लोग प्रभु को वस्त्र, आभरण तथा कन्या आदि दान देने लगे,
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॥१२१॥
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