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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsun Gyanmandir उसे देखने वहाँ गये । उसकी धूनी में एक काष्ठ में जलते हुए एक सर्प को अपने ज्ञान से जान कर प्रभु उस तापस को बोले-हे मुह तपस्वी ! दया विना व्यर्थ ही यह कष्ट क्यों करता है ? क्योंकि संसार के समस्त धर्म दयारूप नदी के किनारे पर ऊगे हुए घास के तृण समान हैं, अतः उसके सूख जाने पर वे कब तक हरे रह सकते हैं ? यह सुन कर क्रोधित हो कमठ तापस कहने लगा-राजपुत्र तो हाथी घोडों की क्रीड़ा करना ही जानते हैं परन्तु धर्म को तो हम तपोधन ही जानते हैं। फिर प्रभुने अग्नि में से वह लक्कड़ निकलवा कर उसको फड़वा कर उस में अग्नि तापसे संतप्त व्याकुल हुए एक सर्प को बाहर निकलवाया, और वह सर्प प्रभु के नौकर के मुख से नवकार मंत्र तथा प्रत्याख्यान सुन कर तुरन्त मृत्यु पाकर धरणेंद्र हुआ। तत्रस्थ लोगोंने प्रभु की अहो ! ज्ञानी इत्यादि कह स्तुति की । प्रभु फिर अपने घर गये और कमठ तप तपकर मेघकुमार देवों में देव हुआ। प्रभु का दीक्षा कल्याणक दृढ़ प्रतिज्ञावाले, रूपवान् , गुणवान् , सरल परिणामवाले और विनयवान् , पुरुषों में प्रधान अर्हन श्री पार्श्वनाथ प्रभु तीस वर्ष तक गृहस्थावास में रहे । फिर जीतकल्पवाले लौकान्तिक देवोंने इष्टादि वाणी से इस । प्रकार कहा-हे समृद्धिमन् ! आप जयवन्ते रहो, हे कल्याणवान् ! आप की जय हो । यावत् उन्होंने जयजय शब्द का उच्चार किया। For Private And Personal
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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