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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद | ॥ ९२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अब पंचभूतों में शंकावाले व्यक्त नामक पंडित को प्रभुने कहा- क्या तुम भी वेद के अर्थ को नहीं जानते ? “ येन स्वनोपमं वै सकलं इत्येष ब्रह्मविधि रंजसा विज्ञेयः " इस पद का तेरे मन में ऐसा अर्थ भाषित है कि सचमुच पृथवी आदि यह सब कुछ स्वम वस्तु के समान असत् है, और इन पदों से पहेले तो पंचभूतों का अभाव प्रतीत होता है, तथा " पृथवी देवता, आपो देवता " इत्यादि पदों से भूतों की सत्ता प्रतीत होती है । बस यही तेरे मनमें संदेह है, परन्तु यह अयुक्त है, क्यों कि - " येन स्वनोपमं वै सकलं " इत्यादि पद अध्यात्म संबन्धी चिन्तन में कनक कामिनी आदि के संयोगोंसे अनित्य सूचित करनेवाले हैं किन्तु पंचभूतों का निषेध नहीं करते। यह चौथे गणधर हुए । फिर जो जैसा है वह वैसा ही होता है, ऐसी शंकावाले सुधर्मनामा पंडित को प्रभुने कहा- तू भी वेद के अर्थ को नहीं जानता? क्यों कि - " पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते, पशवः पशुत्वं" इत्यादि पदों से भवान्तरका सादृश्य सूचित होता है, तथा “ शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते" इत्यादि पदों से भवान्तर का वैसादृश्य साबित होता है यह तेरे मनमें संदेह है । परन्तु यह विचार सुन्दर नहीं है, क्यों कि-" पुरुषो वै पुरुषत्वमश्नुते " इत्यादि जो पद हैं उनका अर्थ तो यह है कि कोई मनुष्य मार्दव ३. इनको यह शंका थी कि पांच भूत हैं या नही ? प्रभुने उनको सिद्ध कर बताया। ४. पांचवें गणधर की शंका थी कि जो यहां मनुष्य है वह परलोक में भी मनुष्य रहता है अथवा और गति में भी जा सकता है प्रभुने उसका समाधान किया । For Private And Personal छड्डा व्याख्यान. ॥ ९२ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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