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हो गया और उसने भी दीक्षा ग्रहण करली। यह दूसरे गणधर हुए ।
अब वायुभूतिने उन दोनों को दीक्षित हुआ सुनकर विचार किया - जिस प्रभु के इंद्रभूति और अग्निभूति जैसे समर्थ शिष्य बने हैं वह मेरे लिये भी पूजनीय हैं, अतः मुझे भी उनके पास जाकर अपनी शंका दूर करनी चाहिये। यह विचार कर वह भी प्रभु के पास आया एवं सभी आये और प्रभुने सब को प्रतिबोधित किया । उसका क्रम इस प्रकार है ।
अब " तेजीव तच्छरीर " अर्थात् वही जीव और वही शरीर है, ऐसी शंकावाले वायुभूति को प्रभुने कहा- क्या तू वेद का अर्थ नहीं जानता ? क्यों कि- “ विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः " इत्यादि वेद पद से पंचभूतों से जीव पृथक् प्रतीत नहीं होता । तथा
सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष ब्रह्मचर्येण नित्यं ज्योतिर्मयो हि शुद्धो यं पश्यंति धीरा यतयः संयतात्मानः, इत्यादि इन पदों का अर्थ इस प्रकार है । यह ज्योतिर्मय शुद्धात्मा सत्य, तप और ब्रह्मचर्य द्वारा प्राप्य है । यह इन वेद पदों से आत्मा की पृथक् प्रतीति होती है अतः तुझे यह संदेह है कि यह शरीर है सो ही आत्मा है या कोई दूसरा है ? परन्तु यह शंका अयुक्त है, क्यों कि " विज्ञानधन " इत्यादि पदों से हमारे कथनानुसार आत्मा की सत्ता प्रगट ही है । यह तीसरे गणधर हुए ।
२. इसका सारांश यह है कि क्या शरीर है वही आत्मा है अथवा आत्मा कोई भिन्न वस्तु है ? प्रभुने फरमाया कि शरीर से आत्मा जुदा हैं ।
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