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तथा पैरों के मर्दन से, फिर पिशाचादि का रूप कर उस के अट्टहास्य से, सेर के रूप धारण कर नखों के विदारण आदि से, सिद्धार्थ और त्रिशला के रूपद्वारा करुणाजनक विलाप करने आदि से उसने अनेक अत्यन्त घोर उपसर्ग किये । सैन्य बनाकर प्रभु के चरणों पर बरतन रख नीचे अग्नि सुलगा कर रसोई करने से, चाण्डालों द्वारा प्रभु के कानों और भुजाओं की जड़ में तीक्ष्ण चोंचवाले पक्षियों के पिंजरे लटकाये, वे प्रभु को चौंच मार कर भक्षण करते हैं। फिर ऐसा पवन चलाया कि पर्वतों को भी उखाड़ फेंके, वह प्रभु को उछाल उछाल कर फेंकता है। गोल पवन चलाया जो प्रभु को चक्र के समान भ्रमाता है । फिर उसने प्रभु पर हजार भार प्रमाणवाला कालचक्र छोड़ा कि जिससे मेरुपर्वत के शिखर भी चूर्ण हो जायें। प्रभु उस से गोड़ों तक जमीन में धस गये । फिर उसने प्रभातकाल बनाकर कहा- हे देवार्य ! आप अभीतक क्यों खड़े हैं ? प्रभु तो ज्ञान से जानते थे कि अभी रात्रि बाकी है । फिर देवऋद्धि बनाकर कहा- हे महर्षे ! आप को स्वर्ग या मोक्ष की इच्छा हो तो माँग लो। इस से भी प्रभु को निश्चल देख उसने देवांगनाओं के हावभावद्वारा उपसर्ग किया । इस प्रकार उसने एक रात्रि में बीस उपसर्ग किये, परन्तु उनसे प्रभु जरा भी विचलित न हुए । यहाँ कवि कहते हैं कि “ बलं जगद्ध्वंसन रक्षणक्षमं, कृपा च सा संगमके कृतागसि । इतीव संचित्य विमुच्य मानसं, रुषेव रोष स्तवनाथ ! निर्ययौ ।। १ ।। हे प्रभो ! आप का बल जगत का नाश और रक्षण करने में समर्थ है तथापि अपराधी संगम देव पर जो आप की ऐसी दया रही इसी कारण मानो आप पर रोष करके
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