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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद | ॥ ६१ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir यह विचार कर के इंद्र तुरन्त ही ब्राह्मण का रूप धारण कर वहाँ पर आया जहाँ प्रभु थे। पंडित के आसन पर प्रभु को बैठा कर पंडित के मनमें जो संदेह था इंद्र उन्ही को पूछने लगा । यह देख लोग विचार में पड़ गये कि यह छोटासा बालक ऐसे गूढ प्रश्नों का क्या उत्तर देगा ? उन लोगों के आश्चर्य मनाते हुए श्रीवीर प्रभुने उन समस्त प्रश्नों का उत्तर दिया। उस वक्त से 'जैनेन्द्र व्याकरण' हुआ । यह बनाव देख पण्डित भी आश्चर्य - चकित हो मनमें विचार करने लगा कि अहो ! इस बालक वर्धमान कुमारने इतनी विद्या कहाँ से सीखी होगी ? कैसे आश्चर्य की बात है ? मेरे मन में जो जन्म से संदेह थे और जिन्हें आज तक किसीने भी दूर नही किये थे । उन्हें आज इस बालक महावीरने दूर किये हैं। देखो इतनी विद्या जाननेवाले इस बालक में कितना गांभीर्य है !! अथवा ऐसे महापुरुष में ऐसे गुणों का होना युक्त ही है। शरद् ऋतु में मेघ गर्जता है परंतु वर्षता नहीं, वर्षाऋतु में गर्जता नहीं परंतु वर्षता है - इसी प्रकार नीच मनुष्य बोलते तो बहु हैं परन्तु करते कुछ नहीं और उत्तम पुरुष बोलते नहीं किन्तु कर दिखाते हैं। ऐसे ही असार पदार्थ का आडम्बर ही विशेष होता है, जैसे कि काँसी का आवाज होता है वैसा सुवर्ण का नहीं होता । इत्यादि विचार करते हुए पण्डित को इंद्रने कहा हे विप्र ! इस बालक को साधारण मनुष्य मात्र समझना ठीक नहीं किन्तु तीन लोक के नाथ एवं सर्व शास्त्रों के पारगामी और अन्तिम तीर्थकर ये श्रीमहावीर प्रभु हैं । इत्यादि भगवन्त की स्तुति कर के इंद्र अपने स्थान पर चला गया । भगवान् भी ज्ञातकुल के सकल परिवार युक्त अपने घर पर आगये । यह पाठशाला भेजने का अधिकार For Private And Personal पांचव व्याख्यान. ॥ ६१ ॥
SR No.020376
Book TitleHindi Jain Kalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmanand Jain Sabha
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1949
Total Pages327
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Paryushan
File Size17 MB
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