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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भगवान् महावीर बाकी के करीब साढे ग्यारह साल उपवास करके काटे । इस साधनामें भगवान् महावीर को हजारों असह्य कष्ट झेलने पडे । जंगली ग्वालों ने इनके पैरों में आग लगाई। कान में काटके कीले ठोके । कितनों ने इनका अपमान किया । संगम नाम के दुष्ट देव ने इन्हें ऐसी यातनाएं दीं कि सुन कर हृदय कांप उठता है । मनुष्य, पशु और देव ताओं ने भी इन्हें विविध भयंकर कष्ट दिये। इतना कष्ट किसी भी ऐतिहासिक पुरुष ने सहन नहीं किया । इनका "महावीर" नाम इसी कारण से इन्द्रने रखा है। घोर तपस्या से भगवान् महावीर ने अपने सभी दोषों का नाश किया। इनमें अनेक सिद्धियाँ आविर्भूत हुई। जगत् के तमाम पदार्थों को जानने की सर्वज्ञता ( केवल-ज्ञान ) इन्होंने पायी। वह वैशाख शुक्ला १० का दिन था । महावीर जब वीतराग और सर्वज्ञ हुए, तब ही इन्होंने उपदेश देना शुरू किया। ये जैनधर्म के अन्तिम तीर्थकर थे । इनके पहले पार्श्वनाथ तक २३ तीर्थङ्कर हो चुके थे । साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका को जैन धर्म में तीर्थ' कहते हैं । जैनागम को भी तीर्थ कहते हैं। तीर्थ को करनेवाले तीर्थङ्कर हैं । 'तीर्थङ्कर' और 'जिन' एकाथेक है, गुण-क्रिया-निष्पन्न विशेषण हैं, विशेष्य नहीं । मगध (बिहार-मिथिला ) देश में महावीर भगवान् ने खूब पर्यटन किया और जैन धर्म के साधु और गृहस्थों में जो शैथिल्य आया था, उसका निर्मूलन किया, एवम् पार्श्वनाथ के समय में चार महाव्रतादि की जो व्यवस्था For Private and Personal Use Only
SR No.020374
Book TitleHimanshuvijayjina Lekho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimanshuvijay, Vidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages597
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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