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भगवान् महावीर
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रह कर भी साधु के नियमों का पालन करते थे । आत्मचिन्तन करते थे !
महावीर के पास प्रचुर धन था । अतः इन्होंने दीन दुःखियों को दान देना शुरू किया । याचक जो चाहता था, वह महावीर से पाता था । मगध ( बिहार ) के अति रिक्त अन्य प्रांत के लोग भी इनके पास दान लेने आते थे। हजारों गरीबों की गरीबी इन्होंने मिटाई ।
तीस वर्षकी ऊम्र में, मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी को, राज वैभव कुटुम्ब परिवारादिका सर्वथा त्याग कर, इन्होंने दीक्षा ( सन्यास ) ली । अब ये निर्ग्रन्थ हुए। उस समय भगवान महावीर स्वामी को "मनः पर्यायज्ञान" उत्पन्न हुआ, यानि ये किसी भी मनुष्य और पशु के मनोगत भावों को जानने में समर्थ हुए ।
भगवान् महावीर ने समझा कि, जबतक आत्माकी पूर्णता प्रकट न हो जाय, इन्द्रिय और मनके दोष जीते न जायँ, तबतक अपना और दूसरे का संपूर्ण उद्धार होना कठिन है। अतः उग्र तप करके पहले वीतराग और सर्वज्ञ होना चाहिए । इस खयालसे इन्होंने साढे बारह वर्षों तक प्रचण्ड तपस्या की । छ-छ महीनों तक इन्होंने बिना अन्न जल के उपवास किया । महीनों तक खड़े खड़े ध्यान किया, निद्रा और आलस्यका सर्वथा त्याग किया । इस तपःसाधना साढे बारह वर्षोंमें केवल ३४९ दिन ही महावीर स्वामी ने भोजन किया, सो भी एक ही बार और
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