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महाकवि शोभन और उनका काव्य
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नवीन जीवन का प्रादुर्भाव हो गया । घर-घर और गाँव-गाँव में धार्मिक उत्सव मनाये जाने लगे। आनन्द की सीमा इतनी बढी कि संघ की विनति से शोभन मुनि के गुरु 'धारा नगरी में पधारे और योग्य शिष्य के प्रयत्न से प्राप्त इस सफलता तथा सर्वत्र विस्तरित कीत्ति देखकर गुरु के हृदय में आनन्द की सीमा न रही । उनका हृदय उछलने लगा। धनपाल ने भी निज के खर्च में धारा-नगरी में श्री ऋषभदेवजी का जैन मंदिर बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा शोभन मुनि और उनके गुरु के द्वारा करायी । इसके उपरांत मालवे में अनेकानेक धार्मिक कार्यों को कर शोभन मुनि ने गुरु के साथ गुजरात की ओर विहार ( प्रयाण ) किया ।
__ शोभन मुनि का व्यक्तित्व
संस्कारी कुटुम्ब में जन्म लेने तथा योग्य गुरु के समागम से शोभन मुनि में बहुत ही उच्च श्रेणी का व्यक्तित्व प्रकट हुआ । इनके व्यक्तित्व के लिए 'चतुर्वि शतिका' की टीका में धनपाल कवि लिखता है-"शरीर से रूपवान् गुण से उज्ज्वल, सुन्दर नेत्रवाला शोभन नामक मुनि सर्वदेव का पुत्र था। यह कातत्र व्याकरण के गूढ
१. प्राचीन धारा तथा वहां के स्थानों के विषय में देखो सन् १९३३ के जून की 'शारदा' (गुजराती) मासिक पत्रिका के अङ्क में छपा हुआ "भोजन र जानी धास नगरी” नामक मेरा लेख । .
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