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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९४ महाकवि शोभन और उनका काव्य कर्ता लिखते हैं कि सर्वदेव को चिन्ता करते-करते जब एक वर्ष बीत गया तो एक दिन उसने यह विचार किया कि अब तीर्थ-स्थान में जाकर श्री महेन्द्र सूरि के उपकार का बदला न देने के पाप का प्रायश्चित्त करना चाहिए | जब यह विचार पक्का हो गया तो वे तीर्थ-स्थान के लिए रवाना हुए। विदा होते समय धनपाल नामक पुत्र ने पिता से विनय की कि आप अभी से तीर्थ करने को क्यों जाते हैं ? आपको किस बात की चिन्ता है ? पुत्र की प्रार्थना पर सर्वदेव ने कहा, "मेरे ऋण को चुकाने के लिए आचार्य श्री ने तुम दोनों पुत्रों में से एक पुत्र की मांग की है । यदि मैंने यह ऋण नहीं चुकाया और मर गया तो मेरी सद्गति नहीं होगी । अतः मैं इस पाप का प्रायश्चित्त करने के हेतु तीर्थ-स्थानों में जाता हूँ।" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उपकार का बदला पिता की यह बात सुनकर धनपाल एकदम चौंक उठा और क्रोध से तमतमाता हुआ सर्वदेव से कहने लगा - "क्या आप अपने लाडले पुत्र को जैन धर्म की दीक्षा दिलवाकर अपने कुल में कलंक लगाना चाहते हैं? इस पवित्र कुल में तो शुद्ध यज्ञ-यागादि वेद पाठ करनेवाले ब्राह्मणों ने ही अवतार लिया है । ऐसी अवस्था में आप अपने पुत्र को किस प्रकार जैन मुनि को देने का साहस कर सकते हैं? यदि आपने मेरे जीवन में ऐसा कार्य किया तो मैं आपसे अपना संबन्ध विच्छेद कर दूंगा ।" इस प्रकार पुत्र के अनादरयुक्त तथा क्रोधान्वित शब्दों को For Private and Personal Use Only
SR No.020374
Book TitleHimanshuvijayjina Lekho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHimanshuvijay, Vidyavijay
PublisherVijaydharmsuri Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages597
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size18 MB
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