________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लच्या निर्दिशति मातुलिङ्गमितिवीजपूराख्यं फलमित्यर्थः 'खेट' चम्म 'बिभ्रती' करैरिति शेषः नागादित्रयं मूई नि बिभ्रती, 'लिङ्ग' अत्र पुंचिह्न रुद्रस्य योनिः' स्त्रीचिह्न विष्णोः, स्त्रीपुंसात्मकत्व च विष्णुर्योनि कल्पयम.टी. विति श्रुतेः, परिशेषाबागोब्रह्मणचिह्न स्यात् तेनास्याः ब्रह्मविष्णुरुद्रात्मकत्वं स्त्रीपंसात्मकत्वं च प्रदर्शितं भवति मातुलुङ्गं गदां खेटं पानपावञ्च बिभ्रती। नागं लिङ्गच्च योनिच्च बिभ्रती नृपमूई नि // 5 // तप्तकाञ्चनवर्णाभा तप्तकाञ्चनभूषणा शून्यं तदखिलं म्खेन पूरयामास तेजसा // 6 // शून्य' तदखिलं लोकं विलोक्य परमेश्वरी / वभार रूपमपरं तमसा केवलेन हि // 7 // सा भिन्नाञ्जनसङ्काशा दंष्ट्राञ्चितवरानना। विशाललोचना नारी बभूव तनुमध्यमा // 8 // ॥५॥पलयामाह शून्यमिति, प्रलयकाले स्थूलरूपाभावेन संस्कारामनावस्थितं जगत्वेन तेजसा चिन्मावरूपेण या व्याप्तवतीत्यर्थः // 6 // महालक्ष्मीरव महाकाल्यात्मकत्वेनापि परिणतेत्याह शून्यमिति // 7 // 8 // For Private and Personal Use Only