________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 एकवाहमिति एकमेवाहितीयमिति श्रुतेः। पश्येत्यस्यैता इत्येव कर्म, वाक्यार्थ एव वा कम्॥३॥ तनी ऋषिरुवाच। निशुभं निहतं दृष्ट्वा भातरं प्राणसम्मितम् / हन्यमानं बलञ्चैव शुंभः क्रुद्धोऽब्रवीदचः // 1 // बलावलेपाद् दुष्टे ! त्वं मा दुर्गे ! गर्वमावह / अन्यासां बलमाश्रित्य युध्यसे यातिमानिनी // 2 // देव्युवाच / एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा। पश्यैता दुष्ट ! मय्येव विशन्त्यो मद्विभूतयः // 3 // तत: समस्तास्ता देव्यो ब्रह्माणीप्रमुखालयम् / तस्या देव्यास्तनौ जग्म रेकैवासीत्तदाम्बिका // 4 // देव्युवाच / अहं विभूत्या बहुभिरिह रूपैर्यदास्थिता। तत्संहृतं मयैकैब तिष्ठाम्यानौ स्थिरोभव // 5 // ऋषिरुवाच। ततः प्रववृते युई देव्याः शुभस्य चोभयोः / पश्यतां सर्वदेवानामसुराणाञ्च दारुणम् // 6 // बयं जगम रित्यन्वयः। स्तनाविति छेदे तु प्राप्य विशेषः // 4 // यत् पास्थितनि छैदः॥ 5 // 6 // For Private and Personal Use Only