________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सशोक इव कम्मात्त्वं दुर्मना इव लक्ष्यसे / इत्याकर्ण्य वचस्तस्य भूपतेः प्रणयोदितम् // 17 // प्रत्युवाच स तं वैश्यः प्रश्रयावनतो नृपम् / वैश्य उवाच / समाधि र्नामवैश्योहमुत्पन्नो धनिनां कुले // 18 // पुबदारैर्निरस्तश्च धनलोभादसाधुभिः / विहीनः स्वजनैर्दारैः पुत्रैरादाय मे धनम् // 18 // वनमभ्यागतो दुःखी निरस्तश्वाप्तबन्धुभिः / सोऽहं न वेद्मि पुत्राणां कुशलाऽकुशलामिकाम् // 20 // प्रवृत्तिं खजनानाञ्च दाराणां चाव संस्थितः / किं नु तेषां गृह क्षेमममं किं नु साम्प्रतम् // 21 // कथं ते किं नु सदृत्ता दुर्वृत्ताः किं नु मे सुताः। राजोवाच / यैर्निरस्तो भवाल्लब्धैः पुत्रदाराभिर्धनैः // 22 // तेषु किं भवतः स्नेहमनुबध्नाति मानसम् / वैश्य उवाच / एवमेतद्यथा प्राह भवानस्मद्गतं वचः // 23 // 4 // 18 // 18 // 20 // प्रवृत्ति वृत्तान्तम् // 21 // // 22 // 23 // For Private and Personal Use Only