________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वयमेव स्थिरीभूतादुत्तीर्य तुरगादसौ // जलं गवेषयामास, तृषाशुष्कोष्ठपल्लवः // 162 // है। गुण दृष्ट्वा जटाधरं कंचित्, कमंडलुकरं पुरः ॥स प्राह सादरं स्वच्छगिरा वास्ति सरोवरम्१६३ | चरित्र. // 65 // आगच्छेति वचःप्रोच्य,तं नीत्वा क्वापि पल्वले॥तापसःपाययामास,जलंपीयुषमंजुलम्।। || स्थूलस्थले त्वयागम्यमत्रास्मीति वदन्नथ।।जगाम तापस कापि, स चचाल हयं प्रति 165 / / | अप्राप्य तुरगं क्वापि, वलितःसरसी प्रति // तामप्यदृश्वास प्राप, स्थलं तापसवेदितम् 166 | स्फूर्जज्जटाकलापं तं, नत्वा तापसमग्रतः।। निषण्णः सैष पप्रच्छ, दृष्टा यूयं सरोवरे॥१६७॥ स प्राह मरुदेशे न, तादृक् क्वास्ति सरोवरम् // त्वया वयं न दृष्टाःस्मः, सोऽन्यः कोऽपि भविष्यति // 168 // ततश्चित्रंदधानोऽसौ, पुनःप्रोवाच तापसम् ।।कुत्रत्यस्त्वं कुतो हेतोः, स्थिरस्थूलस्थले स्थितः।। सपाह श्रूयतां भद,प्रत्यासन्नमतःस्थलात्॥अस्ति वीतभयं नाम, पत्तनं चित्तनंदनम् 170 / / * हेमचूलाभिधो भूपस्तत्र राज्यमपालयत् // चैत्रःपुरोहितस्तस्य, नित्यं क्षणमवाचयत् 171 // 65 // - पुरो निविष्टे भूपाले, क्षणं कुर्वन् विचक्षणे / उद्गारंस करोतिस्म, सुरागंधसमन्वित१७२ For Private and Personal Use Only