________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir / नृपे मंत्रिमुखं पश्यत्यकरोत्तत्क्षणादसो। सर्परूपं महाकाय, शिरःस्फूर्जन्मणिद्युति // 47 // गुण लोके बिभ्यति तत्कालं,विप्ररूपं पुनर्दयौ। विस्मितस्तंनृपः प्रोचे.कोऽसिवं सत्यमुच्यताम्४८ चास्त्र. // 55 // स जगौ देवशर्माभूदियो वेदेषु पारगः // सुग्रामनामनि ग्रामे, गौरी तस्य च वल्लभा 49 / वार्द्धके च तयोर्जाता, सुता रूपजितामरी // चतुर्षिप्रमाणायां, तस्यां स ब्राह्मणो मृतः 50 / / ब्राह्मण्यपि मूता सोऽभूद्धयंतरेषु महोरगः // पातालविवरे तेन क्रीडाथै वाटिका कृता 51 . 18 अवधिज्ञानतो ज्ञात्वा, निराधारां निजांसुताम्॥ खपार्थे स्थापयामाप्त,कियत्कालं समाहितः। तस्या योग्यं भवत्पुत्रं, ज्ञात्वा सांप्रतमेतया ॥युक्त्या सोऽहं समायातस्तकार्य सिद्धिमानया B| तदानाग्य नृपः पुत्रं, निजोत्संग न्यवेशयत्।। योग्यं वरं च कन्यांच, दृष्ट्वाहृष्टोऽखिलो जनः 54 // तदा पुष्पाणिपुष्पाणीत्येवं जल्पन सुकोमलम् / लावा तानि पुरःस्थानि,जनो नृपतिनंदनः नागो जगौ घेजामाता, जातो मेऽयं नु तन्मया॥ नित्यमस्सै प्रदेयानि, मंदारकुसुनान्यपि भवकुलेऽपि नो सर्पविषं वे प्रभविष्यति॥अथो नृपस्तयोः पाणिग्रहोत्सवमकास्यत् // 57 // // 5 // अनुहाप्य गवे नागे, राजा राज्यमपालयत् // नागपुत्र्या सनं रेमे, यौवनस्थो नृपांयजः। For Private and Personal Use Only