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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुप्तेषु तस्य मित्रेषु, तत्रैव तलकुट्टिमे // अर्द्धरात्रेऽचलचंद्रचूडश्च खेचराग्रणीः // 186 // गुण०|| तस्योत्तरीयमुत्तुंगविमानवलभीस्थितम् // पपात वातवेगेन. सौधे रत्नध्धजोपरि // 187 // चरित्र. // 40 // सोऽथ जागरितोऽद्राक्षीत्तद्दिव्यं वस्रमद्भुतम्॥ चंद्रांशुभिञ्युतमिव,लक्ष्यं चंद्रांशुभिःस्फुरत् // * संगोप्य तदुकूलं स स्वीयं तल्पमशिश्रियत् / / प्रातः प्रबुद्धस्तल्लात्वा, पश्यतिस्म पुनःपुनः॥ कृत्वोत्तरीये तत्तादृक्, परिधानं विना तदा॥विषण्णश्चिंतयामास, निजचेतसि राजसूः 190 / अंतरीयं विना तादृगुत्तरीयेण किं मम॥प्रच्छदोझिततल्पस्योपरि चंद्रोदयेन किम् // 191|| दैतीयीकं विना योग्यमेकेन रुचिरेण किम्॥ वरं मुखं भवेदेककुंडलादप्यकुंडलम् // 19 // 3 एवं चिंतातुरं चित्तं, दधानं राजनंदनम् // विलोक्य सुहृदः प्रोचुवैलक्ष्यं किमिदं तव // एतेभ्यः किमयुक्तेन, प्रोक्तेन वचसाधुना॥ साधुना वचनेनेति, तेन तेने मनःसुखम् 194 18 ततो मनोविनोदाय, वने क्रीडाकुतूहलैः॥ मित्रैः सह जगामासौ, वामौकमि विषण्णधी।।१९५॥ सरस्यां दीर्घिकायां च, पद्मतंतून विलोकयन् / / दुकूलमेव सस्मार, रेवाकूलमिव दिपः॥१९॥ // 40 // रंभासु क्रीडितं कुर्वन्नसौ तत्तंतुसंततिम् / / विलोक्य वस्त्रं सस्मार, तद्दिव्यं देवतामिव / / 197 / / For Private and Personal Use Only
SR No.020361
Book TitleGunvarma Charitra
Original Sutra AuthorN/A
Author
Publisher
Publication Year
Total Pages176
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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