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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मनगराधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १७ कालिकद्रीपगत आकोर्णाश्ववक्तव्यता ६९६ अथोपनयं प्रदर्शयति,–'एवामेव' एवमेव-शब्दायमूर्छिताकीर्णाश्ववत् 'समणाउसो' हे आयुष्मन्तः श्रमणाः ! योऽस्माकं निर्ग्रन्थी वा यावत्-आचार्योंपा. ध्यायानामन्ति के प्रत्रजितः सन् शब्दस्पर्शरसरूपगन्धेषु 'नो सज्जइ 'नो सज्जते= आसक्तिमान् न भवति · नो रज्जइ ' नो रज्यते अनुरक्तो न भवति, नो गृध्यति, न वाञ्छति, नो मुह्यति=न मूर्छति, नो अध्युपपद्यतेन तल्लीनो भवति, स खलु इह लोक एव बहूनां श्रमणादीनां चतुर्विधसङ्घस्य अर्चनीयासंमाननीयः यावत् चातुरन्तसंसारकांन्तारं 'बीइइस्सइ ' व्यतित्रजिष्यति उल्लङ्घयिष्यति-पारं गमिष्यतीत्यर्थः ।। मू०३ ॥ पउरत्तणपाणिया णिन्भया णिविग्गा सुहं सुहेणं विहरंति ) और जंगल में ही जो प्रचुरचरने की जमीन थी-जिसमें अधिक से अधिक मात्रा में तृण और पानी भरा हुआ रहता था उसमें ही निर्भय, निरुविग्न होकर सुखपूर्वक रहे । अब इस दृष्टान्त का उपनय प्रदर्शित करने के लिये सूत्रकार कहते है- (एवामेवसमणाउसो! जो अम्हं णिग्गयो वा णिग्गंथी वा जाव सह परिसरसरूवगंधेलु णो सजह णो णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अज्झोववज्जेइ, से णं इहलोए चेव बहणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे जाव वीइवहस्सइ) हे आयु मंत श्रमणो! इसी तरह जो हमारा निर्ग्रन्थ साधुजन एवं निर्ग्रन्थी साध्वी जन अचार्य उपाध्यय के पास प्रवजित होकर शब्द स्पर्श, रस, रूप, और गंध इन पांचों इन्द्रियों के विषयो में आसक्ति युक्त नहीं होता है, अनुरक्त नहीं बनता है, उन्हें चाहता नहीं है, उनमें मूर्छित नहीं होता है, उनमें तल्लीन नहीं होता है, वह इस लोक में ही अनेक सुहेण विहरति ) अ वनमा प्रयु२ २२पानी भीन ती, ज्यां पधारेभा વધારે ઘાસ અને પાણુ હતાં ત્યાં જ નિર્ભય, નિરૂદ્વિગ્ન થઈને સુખથી રહેવા લાગ્યા. હવે આ દષ્ટાન્તને ઉપનય સ્પષ્ટ કરવા માટે સૂત્રકાર કહે છે કે – ( एवामेत्र समणाउसो जो अम्हं णिग्गंथो वा णिग्गंथी वा जाव सदफरिस. रसरूवगंधेसु णो सज्जइ णो रज्जइ, जो गिज्झइ, णो मुज्झइ, णो अम्झोववज्जेइ, से णं इहलोए चेव बहूणं समणाणं ४ अच्चणिज्जे जाव वीइवइस्सइ) હે આયુમંત શ્રમણ ! આ પ્રમાણે જ જે અમારા નિગ્રંથ સાધુઓ કે નિગ્રંથ સાધ્વીઓ આચાર્ય કે ઉપાધ્યાયની પાસે પ્રજિત થઈને શબ્દ, સ્પર્શ, રસ, રૂપ અને ગંધ આ પાંચે ઈન્દ્રિયોના વિષયમાં આસક્ત થતા નથી, અનુરક્ત થતા નથી, તેમને ઈચ્છતા નથી, તેમાં મૂછિત થતા નથી For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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