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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टी० अ० १६ द्रौपदीचच ૩૭૨ कारणस्वरूपानुविधायि कार्य, तन्न दुष्टकारणाऽऽरब्धं कार्यमदुष्टं भवितुमर्हति निम्बवीजादिक्षु यष्टिरिवेति । अन्यथा - कारणव्यवस्थोपरमप्रसङ्गात् । यच्च - यदृच्छाप्रणयनमवृत्तेषु तीर्थान्तरीयेषु रागादिमत्स्वपि घुणाक्षरोत्किरण रागद्वेषमोहरूपान् अन्तरंगरिपून् इति जिन: " राग द्वेष आदिक जो अन्तरंग शत्रु हैं इन पर जिसने विजय पायी है वे ही जिन कहलाते है जिस प्रकार तपन (सूर्य) दहन (अग्नि) आदि शब्द यथानाम तथा गुण वाले हुआ करते हैं, इसी प्रकार " जिन " यह नाम भी यथा नाम तथा गुण वाला है यथा नाम तथा गुण का होना ही नाम की सार्थकता है । जिन्हों ने इन अन्तरंग शत्रुओं को परास्त नहीं किया उनके वचनों में परस्पर अविरुद्धार्थता नहीं आसकती है क्यों कि वहां पर निमित्त की शुद्धि नहिं हैं । इसीलिये अजिन प्रणीत वचन अविरूद्ध नहीं होते हैं । लोक में भी जिस प्रकार नीम के बीज से इक्षु की उत्पत्ति देखने में नहीं आती उसी प्रकार सदोष कारण से उत्पन्न हुआ कार्य भी निर्दोष नहीं होता है। कार्य में निर्दोषता कारण कि निर्दोषता पर आधार रखती है । न्याय शास्त्र का भी यही सिद्धान्त है " कोरण स्वरूपानुविधायि कार्य " कि कार्य, कारण के स्वरूप का अनुविधायक होता है । यदि इस प्रकार की व्यवस्था न मानी जावे तो फिर कार्यकारण भाव की व्यवस्था ही नहीं बन सकती है । हर एक पदार्थ “जयति रागद्वेषमोहरूपान् अन्तररंगरिपून् इति जिनः " रागद्वेष वगेरे ने અંતરંગ શત્રુએ છે તેમના ઉપર જેમણે વિજય મેળવ્યે છે તેએ જ જિન अडेवाय छे, नेम तयन ( सूर्य ) छडन ( अग्नि ) वगेरे शब्दो नाभ लेवा ४ ગુણવાળા હોય છે, તે પ્રમાણે જ "बिन" या नाम पशु नाम प्रमाणे ગુણવાળુ' છે. જેવું નામ તેવા ગુ! હાવા એ જ નામની સાથેંકતા છે. જેમણે આ અંતર'ગ શત્રુઓને હરાવ્યા નથી તેમના વચનામાં પરસ્પર અવિરુદ્ધાથ તા આવી શકતી નથી કેમ કે ત્યાં નિમિત્તની શુદ્ધિ નથી, એટલા માટે અજિન પ્રણીત વચને અવિરુદ્ધ હાતા નથી. લેાકમાં પણ જેમ લીમડાના બીજથી શેરડીની ઉત્પત્તિ જોવામાં આવતી નથી તેમજ સદોષ કારણથી ઉત્પન્ન થયેલું કાય પણ નિર્દોષ હાતું નથી. કા માં નિર્દોષતા કારણની નિર્દોષતા ઉપર આધારિત હૈાય છે. न्यायशास्त्रते। पशु खेन सिद्धांत छे, " कारणस्त्ररूपानुविधायिकार्यं " } अर्थ - ગુના સ્વરૂપના અનુવિધાતા હૈાય છે. જો આ જાતની વ્યવસ્થા માનવામાં આવે For Private and Personal Use Only
SR No.020354
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages872
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size26 MB
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