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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --- - -- जमगारधामृतषिणी टीका ० ९ माकनिवारकचरितनिरूपणम् । मो आद्रियेते नो परिजानीतः 'नो अध्यक्खंति ' नो पश्यतः, 'अणाढायमाणा' भनाद्रियमानौ तमर्थं प्रति-भादरं न कुर्वाणौ ' अपरियमाणा' अपरिजानानौं समर्थमस्त्री कुर्वाणौ ' अगवयक्खमाणा' तत्संमुखमप्यपश्यन्तौ शैलकेन यक्षेग साई सवगसमुद्रं मध्यमध्येन 'वीइवयंति' व्यतिबनतः सुखपूर्वकं गच्छतः । ततः खलु सा रत्नद्वीपदेवता तौ माकन्दिकदारको यदा नो शक्नोति बहुभिः पडिलोमेहिय' प्रतिलोमैश्व-प्रतिकूलै हासगैंचालयितुं वा-क्षोभयितुवा विपरिणामित्तए वा' विपरिणामयितु-मनोवृत्तिं परावर्तयितुं 'लोमित्तए वा ' लोभयितुं लुब्धौ कत्तुं वा अतस्था अणुधिग्गा अक्खुमिया असंभता रयणदीवदेवयाए एयमद्वं नो आदति, णो परिणो अवयवति अणाढायमाणा अपरि० अणवय. क्खमाणा सेल एण जखेण सद्धिं लवणसमुई मज्झं मझेणं वीइवयति) इस प्रकार वे माकंदी-दारक रयणा देवी के मुख से इस बात को सुन कर और उसे हृदय में अवधृत कर भयभीत नही हुए त्रस्त नहीं हुए उद्विग्न नहीं हुए क्षुभित नहीं हुए, संभ्रान्त नहीं हुए घबड़ाये नहीं और न उन्हों ने रयणा देवी के इस अर्थ को आदर की दृष्टि से देखा म उसे स्वीकार किया, और न उस तरफ लक्ष्य ही दिया। इस तरह उस के बचनों का अनादर करते हुए उन्हें स्वीकार नहीं करते हुए तथा उनकी ओर लक्ष्य नहीं देते हुए वे दोनों उस शैलक यक्ष के साथ लवणसमुद्र के बीच में चलते ही गये। (तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय० जाहे पो संचाएंति, बहहिं पडि लोमेहिं य उवसग्गेहिं य चालित्तए वा खोभित्तए वो विप. अभीया अतस्था अणुन्निगा अक्खुभिया असंभंता स्यणदीव देवयाए एयमg नो आरति णो परि० णो अश्यखति अणाढायमागा अपरि० अगव यक्खमाणा सेलए जक्खेण सद्धिं लवणसमुदं मज्झं मज्झेणं वीइवयंति) માર્કદી દારએ રયણ દેવીને મુખેથી આ પ્રમાણે સાંભળીને અને તેને હૃદયમાં ધારણ કરીને ભય પામ્યા નહિ. ત્રસ્ત થયા નહિ, ઉદ્વિગ્ન થયા નહિ ક્ષભિત થયા નહીં સંબ્રાત થયા નહિ, ગભરાયા નહિ અને તેઓએ રણદેવીના અર્થને ન તે સન્માનપૂર્વક જે અને ન તેને સ્વીકાર કર્યો. તે તરફ તેઓએ સહજ પણ લક્ષ્ય આપ્યું નહિ. લવણ સમુદ્રની વચ્ચે થઈને તેઓ બંને શૈલક યક્ષની સાથે પોતાને પંથ કાપતા જ ગયા. (तएणं सा रयणदीवदेवया ते मागंदिय० जाहे णो संचाएंति, बहूहि पडिलोमेहि य उपसग्गेहि य चालिचए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा लोभित्तएवा For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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