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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ५ रैवतकपर्वतवर्णनम् कीश इत्याह-तुङ्गः अत्युन्नतः, 'गगणतलमणुलिहंतसिहरे ' गगनतलमनलिह. च्छिखरः आकाशप्रदेशमनुस्पृशति शृङ्गं यस्येत्यर्थः ‘णाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगए' नानाविधगुच्छगुल्मलतावल्लोपरिगत: नानाविधागुच्छादयः परिगताः सर्वतः समुद्भूता यत्र सः, गुच्छगुल्मलतावल्लीशब्दाः पूर्वं व्याख्याताः, ' हंसमिगमयूरकोंचसारसचक्कवायमयणसालकोइलकुलोववेए हंसमृगमयूरक्रोश्चसारसचक्रवाकमदनसालकोकिलकुलोपपेतः हंसादि-कोपिलान्तानां कुलैः वृन्दैः उपपेतः =युक्तः । अत्र-मदनशाला=सारिकाविशेषः, अन्ये प्रसिद्धाः । 'अणेगतडकडगविवरउज्झरयपवायपन्भारसिहरपउरे ' अनेकतटकटक विवरोज्झरकप्रपातमाग्भारशिखरप्रचुरः, अने के तटाः कटकामेखलाश्च यत्र स तथा, विवराणि = कन्दराश्च, उज्झरकाः निर्झराः पर्वतात् पतनशीला जलप्रवाहाच, प्रपाता:तटरहितनिराधारस्थानानि च, अथवा प्रपाता=गर्ताश्च, प्रारभाराः ईपदवनताः पर्वतभागाच, शिपौरस्त्य दिग्विभाग में-ईशान कोण में-रैवतक नाम का एक पर्वत था (तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे ) यह बहुत ऊँचा था। इस की चोटी आकाश तल को छूती थी (णाणविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगए ) नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से. लताओं से और बल्लियों से यह सर्व प्रकार से युक्त था। इन गुच्छादि शब्दो का अर्थ पहिले लिखा जा चुका है। ( हंसमिगमयूरकोंचसारस चक्कवायमयणसालकोइल्ल कुलोववेए ) हम, मृग, मयूर, कोच, सारस, चक्रवाक सारिका-मेना और कोयल इन के समूहों से यह उपेत -युक्त था। (अणेग तडक डगविवरउज्झरयपवायपन्भारसिहरपउरे) अनेक तटों से अनेक कटकों ( मेखला ) से, अनेक कंदराओं से, अनेक उज्झरको से, निर्झरनों से-पर्वतों से गिरते हुए जल प्रवाहों से, अनेक प्रपोतों से-तटरहित निराधारस्थानों से अथवा गर्तों से कुछ कुछ झुके हुए अनेक पर्वत 3 शान मां रैवत नामे पत तो. ( तुंगे गगणतलमणुलिहंतसिहरे) तर यो त. तना शिम। माशने २५शता उता. (णाणाविहगुच्छ गुम्मलयावल्लिपरिगए ) अने: onतना शुरछी, शुभी, ता. मने पली! થી તે ઢંકાએલે હતો. ગુચ્છ વગેરે શબ્દોના અર્થો પહેલાં સ્પષ્ટ કરવામાં मा०यां छे. (हंसभिगमयूरकोंचसारसचक्कवायमयणसालकोइल्लकुलोववेए) स, હરણા, મોર, ક્રોંચ, સારસ, ચકવાક સેના અને કેલેના સમૂહથી તે યુક્ત हतो. ( अणेगतडकडगविवरउज्झरयपवायपब्भारसिहरपउरे) मने तो मेमसा । (४८) भने ४४२॥ी, भने १२४।-(७२।।) पत। ५२यी નીચે વહેતા પાણીના પ્રવાહો, અનેક પ્રપાતે-તટ વગરના નિરાધાર સ્થાને For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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