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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गारधर्मामृतपणी टीका अ०८ जितशत्रुनृपवर्णनम स्थानाद् वा इह हव्यमागतः ?, ततः खलु स सामुद्रको दर्दुरः तं कूपदर्दुरमे = वक्ष्यमाणप्रकारेण, अवादीत् - हे देवानुप्रिय ! अहं सामुद्रको दर्दुर: = समुद्रनिवासी मण्डूकोऽस्मि । ततः खजु स कूप दर्दुरस्तं सामुद्रं दर्दुरमेवमवादीत -' के महालए' कियन्महालय = कियान विशालः खल हे देवाणुमियस समुद्रः ?, ततस्तदनन्तरं खलु स सामुद्रो दर्दुरस्तं कूपदर्दुरमेवमवादीत् महालयः =अति विस्तीर्णः, खलु देवासे कूदद्दुरे तं सामुद्दददुरं एवं वयासी) इस प्रकार की मान्यता वाले उस मेढ़क के कुएपर उसी समय में कोई दूसरा समुद्र में रहने वाला मेंढक ओगया - उसे आया हुआ देखकर कूप के मेढक ने उस समुद्र निवासी मेढक से कहा - ( से केसणं तुमं देवाणुपिया ! कत्तो वा इह हव्वमागए ? ) हे देवानुप्रिय ! यह तुम कौन हो - इस समय कहां से आरहे हो ? (तएणं से सामुद्दे ददुरे तं कूवदद्दुरं एवं वयासी प्रत्युत्तर में उस समुद्र निवासी मेंढक ने उस कूप मेंढक से ऐसा कहा ( एवं खलु देवाणुप्पिया ! अहं सामुद्दए ददुरे) हे देवानुप्रिय ! मैं समुद्र का रहने वाला मेंढक हूँ ( तरणं से क्रूव दद्दुरे तं सामुद्दयं दुरं एवं वयासी) उस के ऐसे वचन सुन कर कूप मेंढक ने उस समुद्र के निवासी ददुरे से इस प्रकार पूछा ( के महालए णं देवाणुपिया ! से समुद्दे ? ) हे देवानुप्रिय वह समुद्र कितना बड़ा हैं ? ( तरणं से सामुद्दए ददुरे तं कूवदुरं एवं वयासी ) प्रत्युत्तर में उस समुद्र निवासी दर्दुर ने उस से ऐसा कहा - ( एवं खलु देवाणुपिया महालएणं સંકુચિત વિચાર ધરાવતા ફૂવાના દેડકાની પાસે બીજો કાઇ સમુદ્રમાં રહેનાર દેડકા આવ્યા. તેને આવેલા જોઇને કૂવાના દેડકાએ સમુદ્રના દેડકાને કહ્યું— ( से केसणं तुम देवाणुप्पिया ! कस्तो वा इह हव्वमागए ? ) डे हेवानुप्रिय १ तभे अष्णु छो ? अत्यारे तमे ज्यांथी भावो छ। ? (तएणं से सामुद्दे ददुरे त कूवदुरं एव वयासी) श्वामां ते समुद्रमां रडेनारा हेडअो इवाना हेडाने या प्रभाषे म्ह्युं ( एवं खलु देवाणुनिया ! अहं सामुहए दवदुरे ) डे કે हेवानुप्रिय ! डु समुद्रमा रहेनारो हेडओओ छु' ( तएणं से कूत्रददुरे त सामुद्दय दुरं एवं व्यासी) तेनी या प्रमाणे वात सांलजीने वाना हेडा ते समुद्रमां रडेनाश हेडाने या प्रमाये ऽधुं ( के महालणं देवाणुपिया ! से समुद्दे १ ) हे देवानुप्रिय ? ते समुद्र डेटा भोटो छ ? ( तएण से सामुहए ददुरे त क्रूषददुरं एवं वयासी ) श्वाणभां सभुद्रना हेडअो तेने या प्रमाणे - ( एवं खलु देवाणुप्पिया, महालए णं देवाशुप्पिया ! समुद्दे, पण से दवदुरे For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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