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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भिनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम् डीओ' व्याघ्राटिका-उपहासार्थ शब्दविशेषान् कुर्वन्ति, अप्ये किकाः एकाः काश्चित् 'तज्जमाणीओ' तर्जयन्त्यः - दुर्वचनतः, 'मम प्रश्नस्योत्तरं देहि, नो चेत् पश्चाद् ज्ञास्यसि ' इत्यादिना भीषयन्त्य इत्यर्थः । निच्छुभंति निक्षिपन्ति=निस्सारयन्ति । __ततस्तदन्तरं सा चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्या विदेहराजरकन्यायाः दासचेटिकाभिः । यावत्-हिल्यमाना निन्द्यमाना गमाणा, आशुरुप्ता-शीघ्रं क्रोधाविष्टा यावत् 'मिसमिसेमाणी' मिससमिन्ती क्रोधानलेन जाज्वल्यमाना मल्ल्यां विदेह राजवरकन्यायां 'पओसमावज्जइ ' प्रद्वेषमापद्यते-परमद्वेषवती जाता । ततः सा में से किसी एक ने उसे क्रोध उद्भावित-किया, किसी एक ने उस के सोमने अपना मुख मोड लिया, किसी एक ने उस की हँसी उड़ाने के लिये विशेष शब्दों का प्रयोग किया, किसी एक ने दुर्वचनों से उसे तर्जित किया, किमी एक ने " मेरे प्रश्न का उत्तर दे, नही तो पीछे तुझे मालूम पडेगी" इस तरह कहकर उसे डराया और वहां से निकाल दिया । (तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्जमाणी हीलिजमाणी आसुरुत्ता जाव मिसि भिसे माणी मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए पओसमावजइ, भिसियं गिण्हइ, गिणिहत्ता कण्णंतेउराओ पडिनिक्खमइ ) इस तरह विदेह राज कि वरकन्यामल्ली कुमारी की दास चेटियों से अपमानित घृणित, और निन्दित होतो हुइ वह चोक्षा परिव्राजिका, क्रोध से लाल हो गई, और मिसमिमाती हुई क्रोध से जाज्वल्यमान होती हुई-वह विदेह राज की उत्तम कन्या मल्ली कुमारी के ऊपर परम द्वेषवती बन गई। તેમાંથી કેઈકે તેને ક્રોધિત કરી, કેઈએ તેની સામેથી માં ફેરવી લીધું. કેઈએ તેની મશ્કરી કરવા વિશેષ શબ્દોને પ્રયોગ કર્યો, કેઈએ દુર્વચનોથી તેને તિરસ્કાર કર્યો, કેઈએ તેને “મારા સવાલનો જવાબ આપ નહિતર તારી ખબર લઈ લઈશું” આ રીતે બીક બતાવી અને ત્યાંથી બહાર કાઢી મૂકી. (तएणं सा चोक्खा मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए दासचेडियाहिं जाव गरहिज्ज माणी हीलिज्जमाणी, आसुरुता जाव मिसि मिसे माणी मल्लोए विदेह रायवरकनाए पओसमावज्जइ, भिसियं गिण्डइ, गिहित्ता कण्णं तेउराओ पडिनिक्खमइ) આ રીતે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારીની દાસ ચેટીથી અપમાનિત, ઘણિત અને નિદિત થતી ચેક્ષા પરિત્રાજિકા કોધમાં લાલચોળ થઈ ગઈ અને ક્રોધમાં સળગતી તે વિદેહરાજવર કન્યા મલીકુમારી પ્રત્યે ખૂબ જ ઈર્ષાળુ-લેષ કરનારી થઈ ગઈ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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