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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामुतवर्षिणी टोका अ० ८ जितशत्रुनृपवर्णनम् किमन्यदुत्तरं दास्यामी ' त्येवमुत्तर विषयक वाञ्छायुक्ता । ' विहगिच्छिया विचिकित्सिता = ' अस्मिन्नुत्तरे दत्ते सति किं मल्ल्या अत्र श्रद्धोत्पत्यस्यते किं वा नोत्पत्स्यते ' इत्येवं विचिकित्सा = संशयः, संजाता यस्या सा विचिकित्सिता, तथा - ' भेयसमावण्णा' भेदसमापन्ना = अत्र भेदो मतेर्भङ्गः - मयाऽधुना किं कर्तव्यमिति निर्णयाभवाद् व्याकुलतारूपस्तं समापन्ना संप्राप्ता, जाताचाप्यभवत् शङ्कितेत्यादि विशेषणचतुष्टयेन चोक्षा परिव्राजिका मल्ल्याः समुचित दृष्टान्तेन eetतं प्रभं समाधातुं व्याकुलीजाता, इति भावः मल्ल्या: ' णो संचाएइ ' नो से धोने पर किसी भी प्रकार की शुद्धि नही होती है । (तएणं सां चोक्खा परिवाइयो मल्लीए विदेह रायवर कन्नाए एवं वृत्ता समाणा संकिया कंखिया बिगिच्छिया भेय समावण्या जाया यावि होत्या ) इस प्रकार विदेह राज की वर कन्या मल्ली कुमारी के द्वारा समझाई गई वह चोक्षा परिव्राजिका शंका से युक्त बन गई, कांक्षा से युक्त बन गई, विचिकित्सा ( फलके प्रति संदेह और भेद ( अपने मंतव्य का विच्छेद) से समापन हो गई । मनसे सोचकर यदि मैं मल्ली कुमारीको उत्तर दूंगी तो न मालूम वह उत्तर सच्चा होगा कि नहीं होगा इस प्रकारका उसके हृदय में द्वैधी भाव आनेसे वह चोक्षाशंकित बन गई । यदि मेरा दिया हुआ उत्तर ठीक नही होगा तो उस का उत्तर मैं क्या दूंगी - इस प्रकार वह उत्तर विषयक वाञ्छा से युक्त बन गई । मल्ली कुमारी को उत्तर देने पर भी कौन जाने उस में उस की श्रद्धा होगी या नही होगी इस तरह वह विचिकित्सा से युक्त बन गई । For Private And Personal Use Only ४४३ ( तणं सा चोक्खा परिवाइया मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए एवं वुत्ता संकिया कंखिया विइगिच्छिया भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था ) આ પ્રમાણે વિદેહરાજવર કન્યા મલ્લીકુમારી વડે સમજાવવામાં આવેલી ચાક્ષા પરિત્રાજિકા શ’કાથી યુક્ત થઈ ગઈ, કાંક્ષાથી યુક્ત થઈ ગઈ, વિચિકિત્સા ( ફળપ્રાપ્તિ વિશે સ ંદેહ યુક્ત) અને ભેદ ( પેાતાની માન્યતાને નાશ) સમાપન થઈ ગઇ. મલ્લીકુમારીને જવાખમાં હું કોઈ પણ વસ્તુ રજૂ કરીશ તે તે સાચી હશે કે કેમ ? આ જાતની મુંઝવણથી ચાક્ષાનું મન શકિત થઈ ગયું. "L “જો મારા જવાબ ખરાબર નહિ હોય તા ખીએ શેા જવાખ હૂ આપીશ ? આ પ્રમાણે તે જવાબના વિશે વાંાયુક્ત થઈ ગઇ. “ મલ્ટીકુમારીને જવાબ આપ્યા છતાં પણ તેને મારા જવાબ ઉપર વિશ્વાસ બેસશે કે કેમ ?” આ રીતે તે વિચિકિત્સા યુક્ત થઈ ગઈ. આ પરિસ્થિતિમાં મારે શું... કરવું. 46 " ܕ
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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