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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५० शांता धर्म कथाङ्गसूत्रे J - व्यन्तरभेदास्तेषाम् तथा - आर्य कोट्टक्रियाणां च = आर्या प्रशान्तस्वभावा देव्यः, कोट्टक्रिया = चण्डिकारूपादेव्यः, तासां बहूनि उपयाचितशतानि = बहुविधानि मा न्यताशतानि उपयाचमानाः २ कुर्वन्त २ स्तिष्ठन्ति ॥ - २१ ॥ मूलम-तएणं अरहन्नए समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एजमाणं पासइ, पोसित्ता अभीए अत्थे अचलिए असंभंते अणाउले अणुव्विग्गे अभिन्नमुहराग णयणवन्ने अदीणविमणमाणसे पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थंतेणं भूमिं पमज्जड़, पम जित्ता ठाणं ठाइ, ठाइत्ता करयलओ एवं वयासी - नमोत्थूणं अरहंताणं जाव संपत्ताणं, जइ णं अहं एत्तो उवसग्गाओ मुंचमि. तो मे कप्पइ पारितए अहणं एत्तो उवसग्गाओ ण मुंचामि, तो मे तहा पच्चवखाए यव्वे त्तिकद्दु सागारं भत्तं पच्चक्खाइ, तएण से पिसायरूवे जेणेव अरहन्नए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अरहन्नगं एवं वयासी - हं भो ! अरहन्नगा अपत्थियपत्थया जाव परिवज्जिया णो खलु है इस बात को देख कर वे सब के सब भयभीत हो गये, डर गये, उद्विग्न हो गये ! उन के प्रति प्रदेश में भय का संचार हो गया। इस तरह होकर वे सब परस्पर में एक दूसरे के शरीर से चिपक गये । और अनेक इन्द्रों की स्कन्द की कार्तिकेय की रूद्र की शिव की वैश्रमण की नाग की भूत की यक्ष प्रशान्त स्वभाव वाली देवियों की तथा चण्डि का रूप देवियों की सैकडों प्रकार बार २ मान्यता करने लग गये। सूत्र "२१" તાલ પિશાચ ને તેઓએ પેાતાની તરફ જ આવતા જોચે. આરીતે જોઇને તે અધા ભયંત્રસ્ત થઈગયા, ખીગયા, ઉદ્વિગ્ન થઈગયા. તેમના આત્માના પ્રતિપ્રદેશમાં ભયનું સંચરણા થઇ ગયું. તેએ ભયભીત થઈને એક બીજાને ચેાંટી પડયા, અને તેઆમાંથી ઘણા ઈન્દ્રોની સ્કંદની, કાર્તિ કેયની रुद्रनी, शिवनी, वैश्रमणुनी, नागनी, भूतनी, यक्षनी, अशांन्त स्वभाववाजी દેવીઓની તેમજ ચંડિકારૂપ દેવીએની સેંકડો પ્રકારની વારંવાર માનતા માનવા લાગ્યા. ॥ || સૂત્ર २१ ” ॥ 66 For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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