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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भनगारधर्मामृतषिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिरवरूपनिरूपणम् ३११ हस्ते धृतवत्यः पृष्ठतः समनुगच्छन्ति । ततः खलु सा पद्मावती देवी सर्व द्वर्या सखिदास्यादिपरिजनैः सह यत्रैव नागगृहं तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य नागगृहमनुपविशति, अनुपविश्य रोमहस्तकं-मयूरपिच्छनिर्मितमार्जनी गृहीत्वा नागगृह संमायं यावद् धूपं दहति, नागगृहाभ्यन्तरे समन्तात् धूपं दहति स्म। धूपं दग्ध्वा प्रतिबुद्धिप्रतिबुद्धिनृपं स्वपती प्रतिपलयन्ती प्रतिपालयन्ती-पुनः पुनः प्रतीक्षमाणा तिष्ठति स्म ।। मू० १६ ॥ पुप्फपडलगहत्थगयाओ धूवकडुच्छग हत्थगयाओ पिट्टओ समणुगच्छंति ) उस के पीछे २ उस की अनेक दास चेटिया पुष्प करण्डों को और धूप के पात्रों को हाथों में लिये हुए चली । (तएणं पउमावई सविडिए जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नागघरयं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता लोमहत्थगं जाव घूवं डहइ डहित्ता पडि. धुद्धि पडिवालेमाणी २ चिट्ठइ) इस के अनन्तर पद्मावती सखी, दासी आदि परिजन रूप अपनी समस्त ऋद्धि के साथ जहां वह नाग घर था वहाँ आई-वहां आकर वह नाग घर के भीतर गई भीतर जाकर उस ने वहां रखी हुई मयूर पिच्छ निर्मित मार्जनी को उठाया-उठा कर उस ने उससे उस नागघर को झाड़ा झाड कर फिर उस ने वहां यावत् धूप जलाई । धूप जला कर फिर वह अपने पति देव प्रतिबुद्धि राजा की प्रतीक्षा करती हुई बैठ गई । सूत्र " १६" ( तएणं परमावईए दास चेडीओ बहूओ पुष्फपडलगहत्थगयाओ ध्वकडुछगहत्थगयाओ पिट्ठओ समणुगच्छंति) તેની પાછળ ઘણી દાસ-દાસીઓ પુષ્પ-કરડકે તેમજ ધૂપદાનીઓ હાથમાં ઉચકી ચાલવા લાગી. (तएणं पउमावई सबिडिए जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता नागघरय अणुपविसइ अणुपविसित्ता लीमहत्थगं जाव धूवं डहइ डहित्ता पडिबुद्धि पडिवालेमाणी २ चिट्टइ) આરીતે પદ્માવતી દેવી સખી દાસી વગેરે પરિજન રૂપ પિતાની સંપૂર્ણ અદ્ધિની સાથે જ્યાં તે નાગઘર હતું ત્યાં પહોંચી અને ત્યાં પહોંચીને તે નાગઘરની અંદર ગઈ ત્યા જઈને તેણે મેરપીંછી હાથમાં લીધી અને ત્યાર પછી તેણે નાગધરને સ્વચ્છ બનાવ્યું. નાગઘરની સફાઈ કરીને તેણે ધૂપ સળગાવ્યા અને પછી પિતાના પતિ પ્રતિબુદ્ધિની પ્રતીક્ષા કરતી ત્યાં જ બેસી ગઈ. સૂ ૧૬ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
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