SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनगारधर्मामृतवर्षिणी टीका अ० ८ कोसलाधिपतिस्वरूपनिरूपणम् ३०७ लम्ब्य पद्मावतों देवीं 'पडिवालेमाणा ' प्रतिपालयन्तः २ प्रतीक्षमाणाः प्रती क्षमाणास्तिष्ठत । ततस्तदनन्तरं खलु ते कौटुम्बिकाः कौटुम्बिकपुरुषाः यावत्यथापद्मावत्यासमादिष्टं तथा कृत्वा पद्मावतीदेवीं प्रतीक्षमाणास्तिष्ठन्तिस्मा।मू०१५॥ मूळम्-तएणं सा पउमावई देवी कल्लंकोडुबिए एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सागेयं नगरं सभितर बाहिरियं आसित्त समजिओवलितं जाव पच्चप्पिणंति तएणं सा पउमावई देवी दोच्चंपि कोडुंबिय० खिप्पामेब लहुकरणजुत्त० जाव जुत्तामेव उवटवेह, तएणं तेऽवि तहेव उवटावेति। तएणं सा पउमावई देवी अंतो अंते उरंसि पहाया जाव धम्मियं जाणं दुरूढा, तएणं सा पउमावई देवी नियगपरिवाल संपरिवुडा सागेयं नगरंमज्झमज्झेणं णिजाइ, णिजित्ता जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुक्खरणिं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलमजणं जाव परमसूइभूया उल्लपडसाडियाजाई काण्ड-पुष्पों का गजरा-कि जिस से नासिका इन्द्रिय को तृप्ति कारक गंध निकल रही हो को लटकावें। लटका कर फिर मुझ-पद्मावती की वहां प्रतीक्षा करते हुए बैठे रहें । इस प्रकार उन कौटुम्पिकपुरुषों से पद्मावती देवी ने ऐसा कहा-पद्मावती देवी के इस कथनानुसार सब ही काम उन कौटुम्बिक पुरुषों ने किया-अर्थात् मालियों को बुलाया और उन से इस पूर्वोक्त प्रकार के पुष्प मंडप की रचना करने को कहा-उन्हों ने सब कार्य व्यवस्थित ढंग से कर दिया और पद्मावती देवी की प्रतीक्षा करते हुए वे सब वहां ठहरे रहे। सूत्र "१५" લટકાવીને મારી-પદ્માવતી દેવીની બધા ત્યાં પ્રતીક્ષા કરતા શેકાય. આ પ્રમાણે પદ્માવતી દેવીએ કૌટુંબિક પુરુષને નાગમહોત્સવ વિષે સૂચને આપ્યાં પદમાવતી દેવીના આદેશ મુજબ કૌટુંબિક પુરુએ માળીઓને બોલાવ્યા અને બેલાવીને તેમને યથાયોગ્ય પુષ્પમંડપ બનાવવાની આજ્ઞા આપી. આ પ્રમાણે બધું કામ વ્યવસ્થિત રીતે પતાવીને પદ્માવતી દેવીની રાહ જોતા તેઓ त्या साया. ॥ सूत्र" १५"॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020353
Book TitleGnatadharmkathanga Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanahaiyalalji Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages845
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy